मकाँ इक पुराना हूँ मैं, तेरी गर्म सांसों से ढह जाऊंगा
न रो मेरे काँधों से लगकर, कतरा कतरा मैं बह जाऊंगा
आशिक़ बनकर जिया हूँ मैं, आशिक़ बनकर मर जाऊँगा,
छिपाया ताउम्र नाम जो आखिरी हिचकीं में कह जाऊंगा
सुबह एक प्यास की तरह, तेरी आँखों में रह जाऊंगा
आता ही नहीं हूँ मैं, तेरी दर पर दिल लगाने के डर से,
तेरे आंसूओं का इल्म मुझे, अपना दर्द तो सह जाऊंगा
इक फकीरी ख्याल हूँ मैं 'दास्ताँ' अजनबी नहीं कोई,
तेरे शहर में किसी भी गुमनाम गली में लह जाऊँगा
इक फकीरी ख्याल हूँ मैं 'दास्ताँ' अजनबी नहीं कोई,
ReplyDeleteतेरे शहर में किसी भी गुमनाम गली में लह जाऊँगा
बहुत सुंदर पंक्तियाँ.....
सुन्दर रचना!
ReplyDelete’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
ReplyDelete-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
SUNDAR RACHNA
ReplyDeleteसुधीर सब से पहले तो मैं क्षमा माँगती हूँ कि अपनी 31 दिस. की पोस्ट जल्दी जल्दी मे लिखने के कारण बहुत से मेरे अपनो के नाम उसमे लिखने से रह गये। बच्चे आये हुये थे बहुत व्यस्त रही मुझे पता है कि जो मेरे अपने हैं वो मेरी गलती पर नाराज़ नहीं होंगे। मैने अपनी टिप्पणी मे माफी माँग ली है। कई दिन नेट से भी दूर रही इस लिये ब्लाग पर भी नहीं आ पायी। तुम्हारी इस गज़ल के किस किस शेर की तरीफ करूँ कई बार पढा लाजवाब लिखते हो। मैने कापी कर के रख ली है फिर पढूँगी। नये साल की पूरे परिवार को बहुत बहुत शुभकामनायें आशीर्वाद्
ReplyDeleteमैं निर्मला दी की इन बातों से सहमत हूं कि आपकी इस ग़ज़ल के किस किस शेर की तरीफ करूँ। लाजवाब लिखा है आपने।
ReplyDeleteरात-रात जागा हूँ मैं, चुभते हुए ख्याबों की मानिंद
ReplyDeleteसुबह एक प्यास की तरह, तेरी आँखों में रह जाऊंगा
Achee gazal hai .. lajawaab sher hai ...
इक फकीरी ख्याल हूँ मैं 'दास्ताँ' अजनबी नहीं कोई,
ReplyDeleteतेरे शहर में किसी भी गुमनाम गली में लह जाऊँगा
बढ़िया ग़ज़ल है!