प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, July 28, 2009

तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता


मैंने तो सुना था कि दर्द है बड़ा खुदगर्ज होता,
हर कोई सिर्फ़ अपनी ही किसी बात पर है रोता।
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना मेरे हालत पर, ऐ दोस्त! तेरा चेहरा न भीगा होता ।

तेरी झील सी गहरी आँखों में बसा समुंदर न होता,
यूँ बिना किसी आवाज़, बेबात यह निर्झर न बहता,
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना मेरे जज्बातों पर, ऐ दोस्त! तेरा दिल न पशेमाँ होता ।

दिले-ऐ-कतरनों के सिलने का काश कोई तरीका होता,
पहचाने चेहरों की भीड़ में कोई अपना पाने का सलीका होता,
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना मेरे गम पर, ऐ दोस्त! तेरा न सिसकना होता।

(और अंत में, थोड़ा अलग सा ...)
हर किसी की कहनेवाले को न है कोई सुननेवाला होता,
हंसकर मिलनेवालों का है अक्सर भीगा तकिया होता,
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना सबके के लिए मरने वाला, ऐ दोस्त! न तेरा मेरा मसीहा होता।

Tuesday, July 21, 2009

तुम कैसे हो?


आज सुबह -सुबह अपनी उनीदी आँखों में,
तेरा एक टूटा बिखरा सा ख्याब मिला,
तो बावरे मन ने सोचा - तुम कैसे हो?

मैं तो अपने दिल बात, ये अनसुलझे हालत,
कुछ बहकी बातें, कुछ न सम्हली आहें,
ग़ज़लों में, शेरो में, सच्ची-झूठी कह लेता हूँ...
कुछ सूखे रुखसार, रोने के आसार -
अपना लंबा इंतज़ार, हालातों की मार,
गीले सीले सफों में पुडियाकर बज्मो में रख देता हूँ...

पर प्रिय तुम, तुम तो जाने कहाँ गए?
एक न तामीर हुए रब्त के उस पार
थामे हाथों में यादों का चटका संसार
न जाने किन हवाओं में खो गए ...
न जाने किस रिश्ते के हो गए ....

कुछ भी तो नही अब कहते तुम,
न शिकवे और न कोई शिकायत,
न थमने उन किस्सों की आहट।
मेरे दोस्त कुछ तो बोलो कभी,
मुझसे न सही, ज़माने से ही सही।

कैसे सहते हो वक्त के रंज,
वो तिरछे तिरछे तंज
अपने हालत यूँ न छिपाओ,
तुम कैसे हो? कुछ तो बताओ।
यह मौन बड़ा घातक होता है।
इसे यूँ न आजमाओ,
तुम कैसे हो? कुछ तो बताओ।

Thursday, July 9, 2009

तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता

दोस्तों,
सामान्यत: मैं हर मंगलवार को अपनी कविता प्रकाशित करने का प्रयास करता हूँ किंतु इस बार अपवाद के रूप में जल्दी प्रकाशित कर रहा हूँ...आज की कविता मेरी प्रियतमा अर्धागिनी "डॉ सपना पाण्डेय" के लिए समर्पित हैं और उसी को संबोधित हैं। आज हमारे विवाह की नौवी वर्षगांठ हैं...वैसे तो मैं हिन्दी में विद्या वारिधि (पी.एच डी) अपनी पत्नी के आगे कभी भी अपनी कविता नहीं कहता क्योंकि वो या तो मुझसे बेहतर शब्दों में वही बात कह जाती हैं या ढेरो त्रुटियां निकाल देती हैं... किंतु आज इस आशा के साथ इन पंक्तियों के प्रकाशित कर रहा हूँ कि आज प्रिय सिर्फ़ भाव देखेगी शब्द-विन्यास नहीं....

सप्रेम
अप्रवासी

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तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।
यह हँसता खिलखिलाता घर आँगन न होता ॥

आसान नहीं हैं एक पागल बंजारे को अपनाना।
सूनी पत्थराई आँखों में आशाओं के दीप जलाना।
खाली-खाली
बंजर चार दीवारों को घर समाझाना।
तुम न होते तो जीना इतना मनभावन न होता ।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।

तेरे बिन न कोई अर्थ मिला था इस जीवन को ।
कितने दिन औ' किनती रातें व्यर्थ जीया था जीवन को ।
तेरे सपनों के दर्पण ने एक नया रंग दिया हैं जीवन को ।
तुम न होते तो मुझको और जीने का मन न होता ।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।

तुझसे मिलने से पहले दावानल सी जलती थी सांसे ।
हर पग काँटों सी चुभती थीं मुझको सब राहें।
मलयानल सी प्रेम-अलख से ज्योतिर्मय लगती हैं रातें ।
तुम न होते तो चाहत का यह सावन न होता ।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।

तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।
यह हँसता खिलखिलाता घर आँगन न होता ॥

Tuesday, July 7, 2009

हा! कैसा छद्म जीवन ?


मुस्कानों के मुखोटे
अठठासों के लिबास
वस्तुतः रुदन -
हा! कैसा छद्म जीवन ?



विरल सुख, गहन दुःख
फ़िर भी शांत मुख,
नित्य अभिनय नूतन,
हा! कैसा छद्म जीवन ?



दृष्टिगोचर कलरव,
रश्मि का उत्सव,
पर सत्य, निशा-क्रंदन
हा! कैसा छद्म जीवन ?



रिश्तों की भीड़,
सह एकाकी पीर,
मुक्ति या बंधन
हा! कैसा छद्म जीवन ?



दायित्वों के बोझ,
इच्छाओं का रोष,
पर रुग्ण तन -
हा! कैसा छद्म जीवन ?



धर्म की सोच,
कर्म का बोध,
कहाँ मुक्त मन?
हा! कैसा छद्म जीवन ?



गतिमान तन,
आशावान मन,
सत्य मृत्यु या चेतन
हा! कैसा छद्म जीवन ?
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