प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, October 27, 2009

तेरी रुसवाई से, मेरी बेवफाई का इल्जाम अच्छा है




यह मेरे दर्द का फ़साना, कुछ झूठा कुछ सच्चा है
शब-ए-हिज्र की हैं बातें, तुम ही सुनते तो अच्छा है

कहकर तो देखो कभी, परियों की बातें उनसे
हर संजीदा दिल में, सहमता हुआ एक बच्चा है

इसी बहाने पहचान हो गई दोस्त दुश्मनों की,
भरी रईसी से, मेरा मुफलिसी हाल अच्छा है

गोया दिल लगाने का, उनको है तजुर्बा इतना,
पहली नज़र में दिल लेकर, कहते हैं कि अच्छा है

क्या बताते हम नाम सबको, अपने हसीं कातिल का
सुना है कि इस शहर में, हर शख्स कानो का कच्चा है

कुछ आरजू हमको भी थी, इस दिल को  मिटाने की
वरना तेरी महफ़िल से तो, अपना मयकदा अच्छा है

किससे कहता दास्ताँ, सबब तेरी बेपरवाह मुहब्बत का
तेरी रुसवाई से, मेरी बेवफाई का इल्जाम अच्छा है

Tuesday, October 20, 2009

दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ





दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ
पर कोई क्या बताए क्यों थी दिलों में दूरियाँ

दिल में रख छोड़ा था एक ख्याब सुनहरा सा
जिनमे हमेशा वो रहा जिसके ख्याबों में मैं ही कहाँ था?
और क्या कहें,  क्या रही हमारी मजबूरियाँ
दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ

उम्र-भर बैठे रहे, जिसकी राहों में हम नज़रें बिछाए
मुझसे मिला वो, तो उसके पास मेरे लिए वक्त ही कहाँ था?
और क्या कहें, क्या रहीं ज़माने भर की मसरूफियाँ
दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ

मंजिलों की तलाश में हम चले तो सब साथ-साथ थे,
जिसके साथ मैं चला, उसके हाथ में मेरा हाथ ही कहाँ था?
और क्या कहें, क्या रही मेरी बदनाम कहानियाँ
दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ

हाल-ए-दिल कहने को लिखी जिसके नाम गज़लें तमाम,
उनको सुनने को वो, महफ़िल में तन्हा आया ही कहाँ था?
और क्या कहें, क्या रही उस शाम मेरी खामोशियाँ
दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ

दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ
पर कोई क्या बताए क्यों थी दिलों में दूरियाँ


Saturday, October 17, 2009

जितना संभव हो पथ आलोकित करें (दीवाली शुभकामनाएँ)



जिस प्रकार दीपावली के असंख्य दीपो के अथक और निस्वार्थ श्रम से तिमिर प्रभावहीन हो जाता और अमावस की रात भी पूनम के तरह मधुर लगती हैं. उसी प्रकार आपका जीवन भी निस्वार्थ और अथक मानवीय श्रम से यश और कीर्ति की ज्योत्सना से आलोकित होकर अज्ञान और दारिद्रय के तमस पर विजय प्राप्त करे.  इसी कामना के साथ आज की कविता आपको समर्पित है.  


दीवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ
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 अमावस की काली रातों में
जगमग तारों सा ह्रदय धरें,
चन्द्र-राह ताकें क्योंकर हम,
जितना संभव हो पथ आलोकित करें

देवालय आलोकित किए कई,
आओ अब कुछ यूँ जलें
तूफानों से जूझती जो कश्ती,
उसके हम आशा-दीप बने

कितने घट जो अब भी हैं रीते-अंधियारे
अज्ञान-पाश में फँसकर खुद से भी हारे
उनकी सूनी चौखट को रौशन करने को,
आओ हम सप्त-सुरों  के ज्योति-गीत बने

जितना संभव हो पथ आलोकित करें !!

Tuesday, October 13, 2009

साँसों में लिपटी पड़ी है मिट्टी, लोग उठाते क्यों नहीं.




इश्क का है फ़साना, सबको खुल कर बताते क्यों नहीं.
दिल पे हैं ज़ख्म कई, ग़ज़ल कोई गुनगुनाते क्यों नहीं

वो कहते हैं कि इश्क में शर्म-औ'-हया हैं पिछले ज़माने की बातें,
हमने तो कह दिया है खुलकर, तुम अब नजरें मिलाते क्यों नहीं

बहुत मजाजी है मिजाज़-ए-यार हमारे दिलबर का,
ख़त लिखते हैं कि हम कब से रूठे हैं, मानते क्यों नहीं

दिल लगाकर दिल मिटाना हैं आदत हुस्नवालों की,
वो आकर मजबूरी-ए-हालात गिनाते क्यों नहीं

वक्त की हवाएं धुंधला देती हैं हर मंजर निगाहों में,
कितने तूफां गुजरे, तेरे ख्याबों को मिटाते क्यों नहीं.

इश्क में जलकर मर मिटना तो हर परवाने का हैं जुनूँ,
कत्ल हुए कितने, लोग शमाँ-ए-बज्म को बुझाते क्यों नहीं

बहुत रुस्वां हुआ हूँ तेरे इश्क की खातिर मैं,
तुम बीती बातों से कुछ पर्दा उठाते क्यों नहीं

देते ही रहते हैं तंज़ के मुबारक तोफहे मुझको,
नाकाम फसानों को ज़मानेवाले भुलाते क्यों नहीं 

गम-ए-हिज्र का मय औ' मीना से हैं रिश्ता पुराना ,
कशाने-इश्क पूछे है साकी पर पिलाते क्यों नहीं.

कब का मर गया है दास्ताँ उसके जाने के बाद,
साँसों में लिपटी पड़ी है मिट्टी, लोग उठाते क्यों नहीं.

Tuesday, October 6, 2009

दीप-पीड़ा



कभी-कभी ऐसा भी होता है,
जिंदगी के रोज़ बदले चेहरों में,
चुपचाप जलते दीप के नीचे
खामोश पनपते अंधेरों में |
मांगता हैं कोई, मौन ही
अपना अंश का खोया प्रकाश,
बाँटकर चहूँ ओर रश्मि-उल्लास|
फिर देखकर अपना नीड़ निराश,
सोचता है अनवरत निर्विकार
देकर वेदना के स्वरों को विस्तार,
बिना चीत्कार, बिना हाहाकार,
क्या यही मूल्य है, जग-कल्याण का?
सर्व-हिताय शीरोधार्य ज्योत्सना प्राण का?      
विस्तृत अनन्त तक मेरा ज्योति यश
मेरी परिधियों में ही क्यों पनपता तमस?
समरग्रस्त मैं जब सदैव ही तिमिर-प्रसार से
ठहरा कृष्णांश  मेरे सानिध्य, किस अधिकार से?

कौन समझाए उन भावुक युद्धरत बिचारों को |
सबके लिए स्वयं दहकते , राख होते अंगारों को  |
जिन  अंधेरों से वो उम्र भर लड़ते हैं,
वो उनकी ही पनाहों में ही पनपते हैं,
दोनों  ही  पूरक हैं एक दूसरे के,
बिना  परस्पर अस्तित्व दोनों ही अधूरे से   |
यदि तिमिर पूर्णत: मिट जायेगा,
फिर नव दीप कौन जलाएगा  ?
नकारे जाते हैं दोनों दीप और अँधेरे,
आते  ही  मृदुल सुबह सवेरे |
स्वार्थवश छलता हैं दोनों को ही रातभर कोई,
उनके अपने अपने धर्म के छद्म नामों  पर ,
रश्मि उत्सव की पुरातन रीति और
तमस-स्वभाव के अर्थहीन इल्जामों  पर |
हर तिमिर-पग पर प्रज्वलित  दीप कई
हर साँझ  की यही नित्य  क्रीड़ा  हैं |
अपने अस्तित्व से ही लड़ते दीपक को
कौन समझाए वस्तुतः क्या पीड़ा हैं?
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