मित्रों,
कल अपने जन्मदिन पर कुछ क्षण ऐसे भी आये, जब चहुँ ओर की उल्लास और शोर शराबे के बीच मैं आत्म मनन में जुट गया - जीवन के बारे में सोचने लगा. (शायद बढती उम्र का असर होगा!!) . उन्ही विचारों को कविता का रूप देकर आपसे साँझाकर रहा हूँ. आशा है कि आप मेरी इस आत्म-चिंतन को परोसने की धृष्टता को अपना प्रेम देकर क्षमा करेंगे.
सादर,
सुधीर
अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित,
या जीवन-लालसा में व्यर्थ श्वांस-घट रिक्त ...
दो-राहों से पटे समर में, कब संशय-मुक्त
जो पथ पकड़ा क्या वही सहज उपयुक्त
न नाप सका जिन पगडंडियों की लचक
क्यों उनकी कमनीय कामनाओं से व्यथित?
अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित....
अधजल गागर का हैं यह थोथा स्वर,
या शुन्यता देती चुनौती मुझको प्रखर
मोक्ष मेरा क्या ज्ञान-सिन्धु आप्लावित
मुक्ति-मार्ग होगा श्रम-साध्य स्वेद लिप्त
अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित....
मखमली स्वप्निल संभावनाओं से सुसज्जित
इच्छाओं आकांक्षाओं की अट्टालिकाओं से सृजित
क्या होगा मेरा स्वर्णिम भावी-भविष्य परिलक्षित
या कपोल-कल्पित तृष्णामयी होगा जीवन व्यतीत
अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित....
काल के कपाल पर रहूँगा एक अरुणिम तिलक,
यश कीर्ति की रश्मिया लेकर फहरेगा मेरा ध्वज
या कौन जाने? मरू में अंकित एक रेखा की तरह
क्षण भर में ही हो जाये मेरा अस्तित्व विलुप्त
अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित....
अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित,
या जीवन-लालसा में व्यर्थ श्वांस-घट रिक्त ...