प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, September 29, 2009

...कोई तो मेरा किस्सा पुराना मिले


वो पलटते हैं मेरी डायरी के सफे कि कोई तो मेरा किस्सा पुराना मिले,
हर नज़्म नाम उनके औ' वो कहते हैं कोई तो मेरे यार का इशारा मिले

कुछ उनकी नाजों-अदा और कुछ मेरी यह चुप रहने की आदत
कभी तो समझे वो इन ज़ज्बातों को तो सबको एक फ़साना मिले

अनुभव की चांदी जब जुल्फों पर छाने लगे औ' आइना चेहरा झुठलाने लगे
मेरी आँखों में झाँककर सँवारना ख़ुद को , तब भी तुझको वो चेहरा सुहाना मिले

हुस्न की हो मूरत अभी तुम, कई सर तेरे दर पर सजदे में झुक जायेंगे
ढलती उम्र में देखना उस चौखट को, शायद हम सा ही कोई दीवाना मिले

ख़बर हैं कि फ़िर कत्ल हुआ है उनके शहर में आशिक़ कोई ,
देखना कोई जाकर दोस्तों कहीं वो ही खंजर न पुराना मिले

मैं मर भी रहा हूँ यूँ करके कि मेरी मइयत में तो आयेंगे
कुछ तो 'दास्ताँ' उनसे खुलकर मिलने का बहाना मिले

Tuesday, September 22, 2009

क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?




क्यों मन में एक शून्य हैं पनपा,
क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?

 पाषाण हूँ, मैं कोई बुद्ध,
पक्ष में, मैं किसीके विरूद्व
क्यों फ़िर हृदय-संवेदना च्युत,
सिर्फ़ शून्य! प्रवाह सभी अवरुद्ध।।
मुझे कामना की प्यास ,
मुझे निर्वाण की कोई आस।
विदेह ह्रदय हर भावना से मुक्त,
क्यों फ़िर ह्रदय न  गीत साधना से युक्त?


नहीं पसीजता लेस भर हृदय
किसी भी करुण क्रौंच-क्रंदन पर,
नहीं दहकता सूत भर ह्रदय
आज स्वयं के भी मान-मर्दन पर
दिग्भ्रमित पथिक अथक ढूंढता हो
मंजिले ज्यूँ मध्य के पड़ाव पर
शब्द वसन लपेटे खडा हूँ, नग्न बाज़ार में,
क्यों फिर न टपकता काव्य-अश्रु  अभाव  पर?


बौधिक हो रही है काव्य-रचना,
दर्द नहीं इसमे संसार का,
रंगा-पुता हैं हर शब्द पर,
अंश नहीं हैं इसमें प्यार का,
सजे हुए हर्फ बेतरकीब कई  ,
कोई सलीका नहीं इनमे इज़हार  का
साज-सज्जित और अलंकृत हैं छंद
क्यों फिर भाव नहीं हैं कतिपय अहसास का ?


क्यों मन में एक शून्य हैं पनपा,
क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?


Tuesday, September 15, 2009

क्या गिला करें हम अपने मासूम यार का...

क्या गिला करें हम अपने मासूम यार का।
किस किस से छिपायें नाम नादाँ यार का।

जिनके लिए बदनाम हुए, वो किस्से हमारे आम करे जाते हैं
कोई तो सिखाओ यारों उन्हें सलीका इश्क के इज़हार का ।

जिस पर भरोसा किया, उन्होंने ही तमाशा बनाया प्यार का
उम्र हुई न जाने कब आयेगा अब ये मौसम ऐतबार का ।

बहुत बेंचे हैं ख्याब उन्होंने, पल भर के खुलूस की खातिर
कौन जाने वो कब बंद करेंगे धंधा दिलों के कारोबार का ।

निगाहे यार नश्तर है और हुस्न औ'अदा खंजर उनके ,
हँसकर सहते हैं जुल्म, क्या शिकवा करें उनके वार का ।

लगकर मेरे सीने से कहते हैं वो उन्हें इश्क नहीं मुझसे ,
या खुदा क्या जालिम हैं ये अंदाज़ उनके इकरार का ।


रकीबों के इस शहर में सबकी हैं हर किसी से अदावत
कौन सुनेगा 'दास्ताँ' तेरा ये किस्सा पुराना प्यार का ।

Tuesday, September 8, 2009

तुझे मुझसे प्यार न करना हैं, तो न कर



तुझे मुझसे प्यार न करना हैं, तो न कर ,
फ़िर नज़रें भी न मिला, यूँ बेकरार भी न कर।


न देख इन मस्त निगाहों से मुझे ,
हिला, रह रह कर गेसुओं की चिलमन।
दिलफेक नहीं पर आशिक मिजाज है दिल ,
रह-रह कर जुल्फ-ऐ-यार से उलझता है मन।


छोड़, ठण्डी ठण्डी आहें छिप-छिपकर,
मुस्कुरा, रह रहकर इन मासूम अदाओं से।
बेपरवाह नहीं, पर कुछ मदहोश है दिल,
रह रहकर बहकता है, हुस्न-ऐ-यार की सदाओं पे।

न दबा, गुल-ऐ-तब्बसुम यूँ हल्के-हल्के
थरथरा, रह रहकर होठों से इन हर्फ़ बेमायनों को।
प्यासा
नहीं पर, कबका मुन्तज़िर है दिल
रह रहकर मचलता है लब-ऐ-यार के पैमानों को।

तुझे मुझसे प्यार न करना हैं, तो न कर ,
फ़िर नज़रें भी न मिला, यूँ बेकरार भी न कर।

Tuesday, September 1, 2009

...और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी

(गुमनामी के सिवा) और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी

तपती दुपहरी की धुप में साथ निभाने को अपने साये नहीं होते।
भरी भीड़ की भगदड़ में गिरनेवालों को उठानेवाले भी नहीं होते ।
सबका गम बाँटता आया हूँ उम्र-भर , तो फिर आज शिकवा क्यों
यह गम ही तो हैं जिंदगी भर की कमाई मेरी ....
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...

बेरुखी को मसरूफियत, बेफिक्री को जिन्दादिली समझते हैं दुनियावाले ।
अपने ही टूटे चश्मे से सबका चेहरा देखते - समझते हैं दुनियावाले।
अपनी ही सूरत बदलता आया हूँ उम्र-भर, तो फ़िर आज गुरेज क्यों
एक नकाब की चिलमन ही तो हैं पहचान मेरी ...
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...

सबके अपने पैमाने, अपनी ही कसौटी पर परखते हैं सबको लोग,
रिश्ते खो देते हैं पर उन बीते रिश्तों के दर्द पकड़ते हैं बरसों लोग,
खोता आया हूँ रिश्तों को उम्र-भर, तो फ़िर ये गिला क्यों
एक अनजानी भीड़ में खोकर रह गई कहानी मेरी ...
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...
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