प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, September 1, 2009

...और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी

(गुमनामी के सिवा) और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी

तपती दुपहरी की धुप में साथ निभाने को अपने साये नहीं होते।
भरी भीड़ की भगदड़ में गिरनेवालों को उठानेवाले भी नहीं होते ।
सबका गम बाँटता आया हूँ उम्र-भर , तो फिर आज शिकवा क्यों
यह गम ही तो हैं जिंदगी भर की कमाई मेरी ....
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...

बेरुखी को मसरूफियत, बेफिक्री को जिन्दादिली समझते हैं दुनियावाले ।
अपने ही टूटे चश्मे से सबका चेहरा देखते - समझते हैं दुनियावाले।
अपनी ही सूरत बदलता आया हूँ उम्र-भर, तो फ़िर आज गुरेज क्यों
एक नकाब की चिलमन ही तो हैं पहचान मेरी ...
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...

सबके अपने पैमाने, अपनी ही कसौटी पर परखते हैं सबको लोग,
रिश्ते खो देते हैं पर उन बीते रिश्तों के दर्द पकड़ते हैं बरसों लोग,
खोता आया हूँ रिश्तों को उम्र-भर, तो फ़िर ये गिला क्यों
एक अनजानी भीड़ में खोकर रह गई कहानी मेरी ...
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...

9 comments:

  1. बेरुखी को मसरूफियत, बेफिक्री को जिन्दादिली समझते हैं दुनियावाले ।

    सहमत हूँ आपकी बात से..बेहतरीन पंक्तियाँ~

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  2. खोता आया हूँ रिश्तों को उम्र-भर, तो फ़िर ये गिला क्यों

    जिंदगी रुकती नहीं, बढ़ती रहती है। यहां खोया कम और बहुत कुछ पाया जाता है। पर साथ कुछ नहीं जाता....
    आपकी संवेदनाओं के प्रति आदर के साथ...

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  3. सुधीर जी, कमाल के प्रतिबिम्ब प्रयोग किए आपने..........
    अत्यन्त गहरी कविता........
    उम्दा कविता........
    ___बधाई !

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  4. सबके अपने पैमाने, अपनी ही कसौटी पर परखते हैं सबको लोग,
    रिश्ते खो देते हैं पर उन बीते रिश्तों के दर्द पकड़ते हैं बरसों लोग,
    खोता आया हूँ रिश्तों को उम्र-भर, तो फ़िर ये गिला क्यों
    एक अनजानी भीड़ में खोकर रह गई कहानी मेरी ...
    और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...
    सुधीर जी लगता ही है कि ये एक अप्रवादी का ही दर्द है बहुत अच्छी रचना है आभार और शुभकामनायें

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  5. Bhut achchi rachna hai . Bahut khubsoorati se ukera hai apni anubhutiyon ka aks.
    shubkamnayen

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  6. wah ji wah ....kadva, sachcha par khoobsoorat sach. achcha laga man ko ye bhi

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  7. बेहतरीन............. बहुत ही उम्दा रचना है ! अकक्षरस आप और आपकी कलम एक दुजे के लिए है !! आपके लिए दो लाइनें लिख रहा हूँ :- तू भटकती है धरा , में अंतहीन आकाश हूँ ! तेरी नजरों से जो ओझलतेरा ही बिस्बास हूँ !! ............. सागरदीप -

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