प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, August 25, 2009

एक निर्वस्त्र दर्द


एक जागती रात के सिरहाने बैठकर,
आकाश की काली आँखों में झांककर,
मैंने अपना एक निर्वस्त्र दर्द उठाया
झूठे सपनो के तार-तार से कपड़े पहनाये
जो बचा, उसे दुनियादारी के -
फटेहाल पैबन्दों से छिपाया
न चेहरा देखा, न रूह नापी
सिर्फ़ एक एहसास पर कि
एक दिन मेरे दायरों से निकल कर
कहीं एक ग़ज़ल की खुली साँस लेगा ,
उसे दफ़न कर दिया ,
डायरी के मटमैले पन्नो पर ...

7 comments:

  1. वाह सुंदर भाव...सुंदर रचना

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  2. वाह बहुत सुन्दर रचना, लाजवाब।

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  3. दिल में झाँकती रचना है
    ---
    'चर्चा' पर पढ़िए: पाणिनि – व्याकरण के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार

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  4. वाह !
    अत्यन्त कोमल अभिव्यक्ति ....
    गहरी रचना
    सौम्य रचना
    ___________हार्दिक बधाई !

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  5. झूठे सपनो के तार-तार से कपड़े पहनाये
    जो बचा, उसे दुनियादारी के -
    फटेहाल पैबन्दों से छिपाया
    न चेहरा देखा, न रूह नापी
    सिर्फ़ एक एहसास पर कि
    एक दिन मेरे दायरों से निकल कर
    कहीं एक ग़ज़ल की खुली साँस लेगा ,
    बहुत गहरी भावमय और लाजवाब अभिव्यक्ति है बधाई

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