प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, November 16, 2010

ज़िन्दगी दो अल्फाजों में सिमट आती है


ज़िन्दगी दो अल्फाजों में सिमट आती है
आह तेरे नाम से  जब भी निकल आती है

दौर-ए-उल्फत में बहके होंगे कदम हमारे
अब तो तेरी हर बात संजीदा नज़र आती है

कैसे रखते हैं लोग दिल में हसरतें हज़ार
इक आरज़ू में तेरी ये उम्र गुजर  आती हैं

न दिखा ज़ख़्म औ' जज़्बात ज़माने-भर को
हों करम उसके तो ये रहमत नसीब आती है

हैं यकीन दास्ताँ ठुकराएगा वो दिल तेरा
देंखे उनके जानिब ये कब खबर आती है

Friday, November 5, 2010

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ



दीपावली के तमस-भंजक दीपों की ज्योत्सना
हर जीवन को हर्षोल्लास की आभा से जगमगा दे
मिटे सबके दुःख दर्द और दारिद्र का अँधियारा  
रिपु मन-आँगन में भी नित्य नेह के दीप जला दे

हर चौखट पर जले प्रीत के दीप
हर जन हो उल्लासित, हर मन जगमगाए
कहे सुधीर, हर पाठक को
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!!

Tuesday, November 2, 2010

ज़माना है



मेरे हालात पर क्यों हँसता ज़माना है
मेरा कातिल मेरा मुनसिब ज़माना हैं

हर गम-औ-ख़ुशी को बेबस अपनाना है
हाय! क्या बेदर्द यह दस्तूर-ए-ज़माना है

तन्हा सबको अपनी सलीबें खुद ही ढोना है
यूँ तो कहने को सबका हमदर्द ज़माना है

करके तौबा तेरे सजदे में सिर झुकाना है
इश्क-ए-इबादत को जुर्म कहता ज़माना हैं

तेरे मेरे नाम पर निकला इक फ़साना है
न छिपा अब जख्म, कुरेदेगा ज़माना है

तन्हाईयों में भी 'दास्ताँ' सलीके से रोना हैं
दिलजलों की आह को भी परखता ज़माना हैं

Wednesday, October 27, 2010

कभी तो मिलो मेरे ख्यालातों के मोड़ पर



हुआ अरसा, कभी तो मिलो  
मेरे ख्यालातों के मोड़ पर,
देखूँ, हैं कितना बदला तसब्बुर
जो रखा ख्याबों में जोड़ कर

है इल्म कि कुछ मुश्किल होगी
पर खाली हाथ नहीं आना,
इक्का-दुक्का ही सही -
वो तीखी तकरार छिपा लाना
(क्योंकि) बड़ा विराना हो चला है
तुम्हारे बिन इंतजार का ये आलम
थोडा फीका लगने लगा है  
मुझे, अपना दागदार दामन
यूँ तो चुप्पियाँ भी आकार
अब मुझको सदाएँ नहीं देती
भूले-भटके हुए फिकरों की भी
आहटें सुनाई नहीं देती

मैंने भी,
 रस्म-अदायगी  की खातिर
देने को बासी से उल्हाने  संजोये रखे हैं
तोहफे में कुछ बेमतलब शिकवे शिकायत
बेखुदी में पनपे कुछ ख्यालात
आँखों में पुडियाए रखे है
वैसे तो तुमसे कहने को
मेरे कुछ बेपर्दा हालात भी है
साथ में, जबावों के पते खोजते
कुछ गुमशुदा सवालात भी हैं

तुम मिलना जरूर , चाहे  
हमेशा की तरह कुछ भी न कहना,
अपनी उनीदी उन्मादी आँखों से
बस हर बात पे सवाल उठाते जाना
मेरे वजूद को होने का आसरा मिल जायेगा
और हाँ!! जाते जाते तुम
मेरी यें सर्द सिसकती आहें,
बची खुची सहमी कुचली सी सांसे
सब अपने आँचल में गठिया कर लेती जाना
मुझको जिन्दा रहने का बहाना मिल जायेगा!!

कभी तो मिलो तुम मेरे ख्यालातों के मोड़ पर !!

Tuesday, October 19, 2010

कुछ तो असर आहों में है

मित्रों, 
एक लम्बे  अंतराल के बाद आप सब से मुखातिब हूँ. इस बीच कुछ समय के लिए जननी और जन्मभूमि की चरण-रज लेने हेतु भारतवर्ष गया. अपने इस यात्रा में हमने अजंता-एल्लोरा और देवगिरी दुर्ग (दौलताबाद) की भव्य विथिकायों में भी रमण करने का अवसर प्राप्त हुआ. उनकी भव्यता और कलात्मकता  देखकर  ह्रदय  कई  दिनों  तक पाषाणों पर लिखे  उन रागों के अनुराग से विरक्त नहीं हो पाया और न जाने कितनी रचनाएँ पाषाणों से लेकर पत्थर, जीवन से लेकर निर्जन पर लिख डाली.  वापस आने के बाद भी कुछ समय गृहस्थी और दाल-रोटी के चक्कर में आप से वार्ता नहीं हो पाई. लेकिन अब हाजिर हूँ . आशा हैं आपका स्नेह सैदव की भांति मुझे मिलता रहेगा.
 सादर,
सुधीर



थी मेरी मंजिल वो पर अब किसी और की राहों में है
सुना है मेरी मुन्तजिर वो कुछ तो असर आहों में है

न मिटी खलिश कि मिट जाये दूरियाँ दिल की उनसे 
बिताई हमने सिमटकर उम्र जिनकी बेवफा बाँहों में है  

सुना न  ये किताबी बाते कुफ्र औ' क़यामत की वाइज
गुजारी कोई रात क्या तुने उन जुल्फों की पनाहों में है

गोया होगा कोई और भी चेहरा दिलकश चाँद-सितारों सा
हमे तो आरजू इतनी कि मिले वो चेहरा जो निगाहों में है

खो गए 'दास्ताँ' ज़माने कितने खोकर इश्क-ए-मंजिल
हुआ है शायर तू, ये कशिश इन कुरेदे हुए घावों में है

Wednesday, August 4, 2010

तुम्हारा नाम


बड़े छोटे से लगे दर्द अपने
जब चंद पन्नो पर
सिमट आये
कविता बनकर....

तेरी लटों में उलझे
वो तन्हा से ख्यालात,
तेरे बोसों से महके,
कुछ गुमनाम दिन-रात
कुछ कहे-अनकहे  से
मेरे दर्द और  जज्बात
वो सालों तक सताती रही
तेरी रुखसत की एक बात
वो मेरी उम्रदराज आरजू,
एक कशमकश, इंतजार
सब कुछ !!
बस चंद पन्नों पर
सिमट आया था

फिर एक नज़र में,
अपनी कविता लगने लगी..
ज़िन्दगी से बड़ी
आखिर कुछ अल्फाजों में सही 
किसी शख्स की थी उम्र पड़ी
कुछ आशाएं, कुछ निराशाएं
दिल की बोली कुछ नैन-भाषाएँ
कुछ पाने की चाह,
कुछ खोने की आह

अल्फाजों औ' सफों के दायरों से अलग
भावों औ' ज़ज्बातों से ऊपर
तेरे-मेरी कहानी के बंधन से अलग
इक जुस्तजू, इक धरोहर की
खुशबू की तरह रोशन
साँस लेती, जीती मरती इक कहानी
जो पनप रही थी
उन चंद पन्नों पर....

पर दोनों ही हालातों में ,
शिकवा तो वही था, जानम!
इस बेनाम साझी सी कहानी की
हर लाइनों की तहों में,
जबकि एहसास सिर्फ तुम्हारा  था
लेकिन मेरी हाथ की रेखाओं की तरह
इस नज्म  में भी नदारत,
 नाम तुम्हारा था...

Tuesday, July 20, 2010

दिल-तोड़ने से पहले थोडा इंतज़ार कीजिये


यूँ बैठे बैठे न आप, आहें हजार लीजिये
इश्क है गर आपको तो  इज़हार कीजिये

करवटों में गुजरेंगे, जागती रातें कितनी
ख्याबों में आकार ही हमे बेक़रार कीजिये

दबाने से नहीं हासिल, इश्क को मंजिल
किसी रोज़ तो दिल का कारोबार कीजिये

मुहब्बत में कहाँ होती, गुंजाइश शिकवों की
हाज़िर है जिगर अपना खुलकर वार कीजिये

जवानी में बहकना भी, होती है इक अदा
किन्ही मामलों में दिल का एतबार कीजिये  

मुन्तजिर रहा है 'दास्ताँ',  उम्र भर आपका
दिल-तोड़ने से पहले थोडा इंतज़ार कीजिये

Saturday, July 10, 2010

तुम

मित्रों,
आज अपने विवाह की १०वी वर्षगांठ पर अपनी प्राण-प्रिया के लिए चंद पंक्तियाँ लिख रहा हूँ...मेरी हिंदी की डाक्टर साहिबा पत्नी को हो सकता है यें कविता काव्य-शास्त्रों के मापदंडों पर खरी न उतरती हुई प्रतीत हो... पर मैं इस सार्वजानिक मंच से बस इतना ही कहना चाहिंगा - यदि भावों की अभिव्यक्ति कविता है, यदि ह्रदय की टीस कविता हैं, यदि अव्यक्त अभिलाषाओं की बातें कविता हैं, तो प्रिय, फिर ये मेरे ह्रदय-उदगार भी कविता हैं....



तुम! तुम ही क्यों वो,
जो मेरे अंतः का हर स्पंदन,
बोली या सहमी हर धड़कन
ह्रदय की हर परिभाषा -
आशा या निराशा
यूँ खुली किताब सा पढ़ लेते हो
और वो सब, निःशब्द
बिना अलंकार, सज्जा-श्रृंगार
बिना किसी मिथक
हर भाव पृथक-पृथक
नैनों से कह देते हो

मुठ्ठी भर मुस्कान
कुछ आंसू जाने अनजान
कुछ सच्चाई  कुछ कडुवाहट
बिना शोर बिना शिकायत
सब कुछ!! बिना राग
जीवन  के भारी काव्य 
मेरे काँधों  पर सर रख
सांसों में गा लेते हो....

सुख-दुःख की बन्दर-बाट
पाप-पुण्य की बिछी बिसात
स्वप्नलोक के टूटे घट
अभिलाषाओं के प्यासे पनघट
सब भूला-
पीयुष घटा की प्रथम  फुहार  बन
आलिंगन में कस लेते हो...

तुम! तुम ही क्यों वो,
जो मेरे अंतः का हर स्पंदन,
बोली या सहमी हर धड़कन
यूँ खुली किताब सा पढ़ लेते हो

Tuesday, July 6, 2010

तेरी यादों की है रहमत, हम अकेले न होंगे


होगा यूँ भी ज़िन्दगी में कि ये मेले न होंगे
तेरी यादों की है रहमत, हम अकेले न होंगे

मिलेगा वो मुकाम कभी तो इश्क वालों को
ज़माने के हाथों में सिर तलाशते ढ़ेले न होंगे

दिल टूटने का दिलकश फ़साना अपना इश्क
चलेगा तब भी जब फुसफुसाते घरोंदे न होंगे

हो जवाँ मिल ही जायेंगे आशिक़ कई तुमको
करे इंतजार ताउम्र, ऐसे हमसे अलबेले न होंगे

करोगे तलाश कभी तो बुझते हुए चिरागों की
लौटते  दर पे हर मौसम फरेबी-सवेरे न होंगे

होगी महसूस तुम्हे भी ज़िन्दगी-भर की खलाएं,
होगी ग़ज़ल तेरे नाम, पर अहसास मेरे न होंगे

निभाता रह दास्ताँ तू रस्म-ए-मुहब्बत उम्रभर
होगी क़द्र जज्बातों की जब निशाँ तेरे न होंगे

Tuesday, June 29, 2010

मुक्ति-कामना



प्रिय तुम!!
मुक्त कर दो मुझे,
प्राण परिधियों से...
दिग्भ्रमित करती अविरत 
जीवन मोहनियों* से 

मैं प्रज्वलित निष्प्रदीप
व्यर्थ होता जीवन-यज्ञ
विचलित मन-खग
स्थिल हो रुकते पग
प्रीत कर पिंजर से
मुष्ठियों में ढूंढता नभ

श्वास क्षितिज के पार
जहाँ बिंदु भर लगता
व्योम-विस्तार
काल-खण्डों की -
कल्प-गणना से विरक्त
अनन्त से अनन्त तक
दृष्टव्य जहाँ उन्मुक्त सत्य
शुभ्र, सनातन किन्तु अव्यक्त

लेकर वही उसका पथ-प्रखर
हे कमनीय! बन कुंदन
शाश्वत जाऊँ मैं निखर
प्रिय तुम!!
मुक्त कर दो मुझे,
प्राण परिधियों से...


* जीवन मोहिनियों  = पंच-विकार; काम, क्रोध, लोभ मोह और अहंकार

Tuesday, June 22, 2010

नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं


नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं
गढ़ लेते हैं स्वप्न जिनका कोई आधार नहीं

एक ख्याल की बंदिश पर कई राग सजाते है,
यूँ ही बैठे बैठे, न जाने किंतने आलाप लगाते हैं
वो सरगम गाते हैं जिसका कोई रचनाकार नहीं 
नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं...

कैसा भी हो काव्य-भाव बस अनुराग सुझाता है
टूटे-फूटे छंदों पर भी, मन अलंकार सजाता है
वो गीत सुनाते है जिसका कोई गीतकार नहीं
नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं...

सुख-दुःख के पखवाड़े पर, आशा-दीप जलाते है
बैरी ह्रदय पुष्प पर भी बन प्रीत-भ्रमर मडराते है
सब अपने से लगते हैं, पराया यह संसार नहीं
नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं...

बहकी बहकी बातों से मन को बहलातें हैं
घंटों बस मौन से न जाने क्या बतियाते हैं
उन प्रश्नों पर ठहरे जिनको उत्तर दरकार नहीं  
नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं...

Tuesday, June 8, 2010

केहि बिधि मिट्टी से मिट्टी मिल जावे...

मित्रों,

ऐसे ही फुर्सत के कुछ लम्हों में एक ताल के किनारे बैठे हुए, मेरोरियल डे के दिन (मई ५, २०१०) चंद पंक्तियाँ मन में उपजी...उन्हें सूफियाना रंग और विस्तार  देकर प्रस्तुत कर रहा हूँ,  वैसे तो सूफी गीतों पर मेरी कोई पकड़ नहीं हैं पर फिर भी विश्वास है कि आप मेरी इस कोशिश को सदैव की भांति अपना स्नेह देंगे.
सादर,
सुधीर


कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे
दाग देय देंह को कोई, या मिट्टी में मिट्टी दबवाबे
पिया-मिलन की आस है, बाबुल के रिश्ते  बिसरावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

सुलगी जब नयनन की बाती, दहकी सांसों से छाती
बहुत जली पीहर मैं तो, विरह की तपन में मैं तो
कोई तो पिय को बतलावे, लेप-चंदन से मिट न पावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

पीहर के खेल-तमाशे, कुछ बाँधे कुछ समझ न आवे
पिय ने बिसरा मोको पर जियरा पिय को न बिसरावे
इक नेह की डोर से बँधे हैं कैसे कोई बंधन छुटबावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

जग की है रीति पुरानी, पीहर का कितना दाना पानी
पग-फेरे की बात थी अपनी, निठुर की देखो मनमानी
कैसे भूले वो प्रेम-कहानी, कोई तो उनको याद करावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे
दाग देय देंह को कोई, या मिट्टी में मिट्टी दबवाबे
पिया-मिलन की आस है, बाबुल के रिश्ते बिसरावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

Tuesday, June 1, 2010

उसका आया है ख़त कि भूल जाऊं उसे


आया है ख़त उसका कि अब भूल जाऊं उसे
ग़ज़ल न रही वो मेरी, अब न गुनगुनाऊ उसे

रहा यतीम ख्याल सुनहरा तेरे मेरे रिश्ते का
जब न कोई निस्बत तुझसे तो क्या अपनाऊँ उसे

उफ़क तक भी न पहुंचा अहसास अक़ीदत का
खौफज़दा सजदों का सच, मैं क्या बतलाऊँ उसे

बढ़ गया बहुत आगे वो लेकर नाम तिजारत का
दिल औ' जज्बातों की बात अब क्या समझाऊँ उसे

सच कहता है वो बनकर रहनुमा हम गरीबों का
हालात-ए-मुफलिसी बयाँ करके  क्यों झूठलाऊँ उसे

नाम न दे सके जिस अहसास को दुनियादारी का  
क्यों ज़रूरी हैं कि मैं किसी नाम से बुलाऊँ उसे 

हद-ए-आईने में कैद हैं एक शख्स दास्ताँ तुझ सा
छोड़े खामोशियों की चिलमन,  तो पहचान पाऊँ उसे

Tuesday, May 25, 2010

मृत्यु से अनुरोध


शरणाकांक्षी अंतर्मन
आहात देह
खंडित दीप
च्युत नेह

रह रहकर
गिरता मन
ज्योति दण्डित
तम सघन

नयन स्थिल
मेधा विकल
प्रतीक्षारत विभा
रवि विह्वल

आलंबनाकांक्षा
अलिंगनानुरोध
श्वांस समर्पण
जीवन प्रतिरोध

पाप-पुण्य से दूर
स्वर्ग-नर्क से इतर
हो साथ तेरा
वही मार्ग प्रखर

हो स्पर्श तेरा
पावन-पुनीत
भाव पराजय का
हो शुन्य प्रतीत

तुम जयी बन
ले जाओ मुझसे
मेरे झूठे अहम्
जो निर्वासित जग से

Saturday, May 22, 2010

सुना है कि खुदगर्ज दुआएँ मिलती नहीं


सुलग कर रह गया चाँद फलक पर,
अंधियारी रातों में शोखियाँ चलती नहीं
मांग लेता खुदा से मैं भी तुझको पर,
सुना है कि खुदगर्ज दुआएँ मिलती नहीं

क्या करता मैं नुमाइश इन ज़ख्मों की
मुर्दा-दिलों में टीस कोई उठती नहीं
दौड़ना रही मजबूरी मेरी उम्र भर
गिरे देवों के लिए भी भीड़ रूकती नहीं

हमदर्द तलाशता क्या इस शहर में
गैर के फ़सानों पर कोई रोता नहीं
तन्हाइयों से रहा खुद बतियाता मैं
दर्दीले नगमों पर कोई वक्त गँवाता नहीं

थी उम्मीद मुझे एक और मुलाकात की
सोची बातें हज़ार पर कहना आसाँ नहीं
हैं ज़ख्म इतने हैं अपने चाक जिगर पर
गैरों को दिखाना अब मुझे गंवारा नहीं

बहती रहीं आँखों से, चाह मिटती नहीं
क्यों कोशिशें तुझे भूलने की चलती नहीं
 मांग लेता खुदा से मैं भी तुझको पर,
सुना है कि खुदगर्ज दुआएँ मिलती नहीं

Tuesday, April 27, 2010

दर्द-ए-दिल दिल तक ही रखूँ, यह ज़रूरी तो नहीं


दर्द-ए-दिल दिल तक ही रखूँ, यह ज़रूरी तो नहीं,
सरेआम रों दूँ, पर ऐसी भी मेरी मजबूरी  तो नहीं

ज़माने का दस्तूर निभाना, है हिदायत वाइज़  की
फिर मिलेगी जन्नत पर यह उम्मीद पूरी तो नहीं

डरता हूँ बेअदबी की तोहमत न दे मुझको  ज़माना
बस सच कहता हूँ, फितरत मेरी जी-हुजूरी  तो नहीं 

दर्द हद से गुजर गया होगा जर्ब चाक-जिगर का
आवाज भर्राई है पर ऑंखें उसकी सिंदूरी तो नहीं

खो गया कहीं रिश्ता हमारा वक्त की सियासत में
फिर भी पास है तू, एक हिचकी कोई दूरी तो नहीं

वो जाते जाते जिंदगी मेरी ख़लाओं से भर गया
शिकवा क्या करे दास्ताँ, जिंदगी अधूरी तो नहीं

Saturday, April 24, 2010

कुछ कथाओं की अपूर्णता ही देती हैं तृप्ति ...



कुछ कथाओं की अपूर्णता ही देती हैं तृप्ति ...
कौन जाने अन्यथा जीवन-पूर्णता भी क्या मुक्ति?

स्वयं तराशता परिधियाँ अपनी  कामनाओं की
उकेरता अदृश्य-खंडित सीमायें भावनाओं की
हैं तो असंख्य आकांक्षाएं सहज समाधान की
किन्तु दृष्टव्य नहीं कोई राह मुक्त-व्यवधान की

प्रस्तुत विविध विकल्प अनन्त वैभव विस्तार के
तोल-मोल भाव लग रहे हैं भावों के संसार के
विक्रयशील मनुज, मार्ग कई हैं आत्म-व्यापार के
उऋण न देह यहाँ, तो पथ क्या हों प्राण-प्रसार के

अदृश्य जीवन-मंथन अनवरत चल रहा प्रारब्ध से  
उपजता मात्र हलाहल, विलुप्त रत्न सभी  प्रसाद से
वरण करता रहा, क्या अपेक्षित करूँ शिवाराध्य से
मोक्ष-तृष्णा से मरूं या तृप्त प्रयाण  हो प्रमाद से

कौन जाने अन्यथा जीवन-पूर्णता भी क्या मुक्ति?
कुछ कथाओं की अपूर्णता ही देती हैं तृप्ति ......

Friday, April 9, 2010

पुरानी तस्वीर



कल पलटते उस पुरानी एल्बम के पन्ने -
फिर मिली एक तस्वीर पे, वो बेकरार शाम
कुछ शरारतें हमेशा की तरह मुठ्ठियों में भींचे
वो शोख चंचल आँखे कुछ मस्ती में नीचे खीचें
जुल्फे रब्त पर एक सवाल की तरह उलझी सी,
और एक लम्बी चुप्पी की सिरहन, ठंडी सी
जो उस पल से अब तलक चली आई थी

नावेल के मुड़े पेज की तरह, ज़िन्दगी 
अब भी किसी सफे पर बस रुकी सी लगी
बात तो कल की थी मेरे हमदम पर
कहानी अब तक चली सी लगी
यूँ लगा एक पल की कशमकश की सिलवट में
एक गुमशुदा सी जिंदगी बैठी हो जैसे
तुम आओ न आओ, पर ऐ खुदा!
इस पल पर मैं लौटाता रहूँ ऐसे ...

Wednesday, March 31, 2010

गुमनाम सी मौत


कल जो मरा गली के नुक्कड़ पर,
गुमनाम सी मौत,
वो शायर ही होगा शायद....

ताउम्र अहसासों की कुची से
रंग भरता रहा जिंदगी के,
शफाक से कागजों पर...
रंग ही न बचे उसकी -
ज़िन्दगी के मुहाने पर 
कितनी सादगी से मौत ने  भी
 थामा उसका बदरंग सा दामन...
वो शायर ही होगा शायद....

लब्जों की चिलमन से
कई बार झाँका था उसने
दिलकश-हसीं जिंदगी का चेहरा
पर शब्द भी तो इंसान के जाये थे
कब तक साथ निभाते?
एक उफ़ भी न कह सका वो 
थामा जब मौत ने चुपके से उसका दामन ...
वो शायर ही होगा शायद....

सबके दर्द की चुभन,
कुछ आंसू, एक टीस
महसूस करता रहा ज़िन्दगी भर...
गढ़ता रहा नज़्म का चेहरा
भरता रहा बज़्म में दर्द के प्याले
पर एक हमदर्द भी न मुनस्सर हुआ
थामा जब मौत ने उसका तन्हा दामन
वो शायर ही होगा शायद....

कल जो मरा गली के नुक्कड़ पर,
गुमनाम सी मौत,
वो शायर ही होगा
 यकीनन!!

Tuesday, March 23, 2010

आशिक़ की थी आखिरी-आह....



आशिक़ की थी आखिरी-आह, नतीजा ज़माना-ए-बेइंसाफ की
सबको दे गया था वह दुआएं  बस शिकायत अपने खिलाफ की

 हुआ क़त्ल चुपचाप पर  कह न सका बेवफाई यार की
रहा सोचता शब-ए-क़यामत को होगी बात इंसाफ की

खलती नहीं  नाराजगी उनकी जो झूठे शिकवों से इजहार की
मालूम हैं हमको चलती नहीं देर तक ठंडक लिहाफ की

थी खबर  उसको भी मेरी ताउम्र कशमकश औ' इन्तजार की
चुपचाप नज़रें फेरकर उसने, न जाने कितनी  बातें साफ की

क्या मासूम है अदा दास्ताँ उनकी जुल्मत के इकरार की
पूछते हैं हमसे दिल तोड़ने की सजा भी क्या मुआफ की

Tuesday, March 16, 2010

गम है कि जिन्दा हूँ, वरना खुशियों से तो मर जाता



गम है कि जिन्दा हूँ, वरना खुशियों से तो मर जाता
तनहाइयों ने थामे रखा, वरना जमाने में किधर जाता

सौ बार हुआ क़त्ल रहा फिर भी धड़कता मेरा दिल
माजी की थी चाहत नहीं तो इक झोके से बिखर जाता

न छिपा ज़ालिम पर्दों में यूँ, इस गुल-ए-हुस्न को अपने
होती हैं आफ़ताब आशिक़-निगाहें, पड़ती तो निखर जाता  

खुशनसीब हूँ मैं कि उसने  मुझसे इक रिश्ता तो बनाया
ज़फ़ा करके वो कायम है, वफ़ा करता तो मुकर जाता

दिल टूटा है होगा तूफां से तेरा सामना उम्रभर अब तो
ख्याब कोई टूटा होता तो मौसमी गुबार सा गुजर जाता

रहमत उसकी जो हँसकर दिल लगाया भी, मिटाया भी
मेरे दामन को वरना कोई कैसे इन गजलों से भर जाता

हुई हैं कामयाब दास्ताँ कुछ तो रकीबों की बाते वरना
तुझसे मिलकर वो मुस्कुराता सा चेहरा न उतर जाता

Tuesday, March 9, 2010

तेरे तसव्वुर से मैं कह पाता, मैं वो सब जो कहना भूल गया



तुम जाओगे तो क़यामत होगी, रुक जाओगे तो क़यामत होगी
हाय! इसी कशमकश में,  मैं तुझसे हाल-ए-दिल कहना भूल गया
काश थाम कर यादों का आइना, पलट कर कुछ वक्त के पन्ने,
तेरे तसव्वुर से मैं कह पाता, मैं वो सब जो कहना भूल गया

वो रब्त जिसे बाँध न पाए, तेरे मेरे नाम के कच्चे धागे
उसके सिरे थामे अपने कुछ उजडे सपने बांधा करता हूँ
खामोशियों की आड़ में ठंडी साँसों  में लपेटकर अब भी
हर गिरह पर तेरे नाम से गुमनाम रिश्ते बांधा करता हूँ

ज़रूरी तो नहीं ज़िन्दगी में,  हर सवाल का जवाब मिले
मुमकिन हैं कि सवाल के, जवाब में हमे इक सवाल मिले
फिर भी यह सोचकर गुज़रता हूँ मैं, तेरी रहगुजर से
किसी रोज़ तो तू भी मुझको, मुझसी ही हमख्याल मिले

इश्क एक अहसास दफ्न जो, कितने बेजुबां दिलों की तहों में
शब्द हैं दरकार इसको भी,  तभी  होता यह मुकम्मल पलों में
मालूम थी यें हकीकत मुझे फिर क्यों तुझसे कहना भूल गया 
ताउम्र इबादत की जिसकी दास्ताँ, उसके सजदे में रहना भूल गया
काश थाम कर यादों का आइना, पलट कर कुछ वक्त के पन्ने,
तेरे तसव्वुर से मैं कह पाता, मैं वो सब जो कहना भूल गया


विशेष: सभी गत सप्ताह सोमवार को होली के  कारण काव्य रचना से अवकाश रहा. क्षमा प्रार्थी हूँ और साथ ही सभी आदरणीय पाठकों एवं स्नेहीजन को (देर से ही सही)  होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.  

Tuesday, February 23, 2010

क्या कहता वो, बस रो पड़ा मेरा नाम लेकर



पूछा जो हाल-ए-दिल, साकी ने  दो जाम देकर
क्या कहता वो, बस रो पड़ा मेरा नाम लेकर

गम-ए-हिजरा में होती हैं ऐसी भी हैं अदाएं,
बतियाते हैं वो, आईने से मेरा नाम लेकर

हालात का मारा है शायद, होगा खौफज़दा भी,
सुनाता है वो, फ़साना अपना मेरा नाम लेकर

गर्दिश में बदलती हैं, तहजीबो-अदब की निगाहे,
बुलाते हैं वो, न अब मुझको मेरा नाम लेकर

हमशक्ल न सही, हममिजाज़ तो होगा वो शख्स
भुलाते हैं वो, जिसे दास्ताँ मेरा नाम लेकर

Tuesday, February 16, 2010

कैसे सरेआम कर दूं तेरे कांधे के बोसे को




हैं कई इल्जाम मुझ पर यूँ तो चुप रहने को
कैसे सरेआम कर दूं तेरे कांधे के बोसे को

कुछ तो बरकत मिली होगी  भूखे पेट सोने से 
वैसे तो मोमिन कहता है, कई रोज़ हैं रोजे को

चाक-जिगर है पर, दुनियादारी भी तो ज़रूरी
रोऊंगा मैं, खाली ही रखना एक तन्हा गोशे को  

मुफलिसी में करता हूँ हक-ए-मजलूम की बातें
कौन सिखाये दस्तूर-ए-ज़माना मुझ सरफरोशे को

हुस्न वालों पर एतबार से 'दास्ताँ' डरना कैसा
अपने क्या कम हैं, तोड़ते तेरे दिल-भरोसे को

Tuesday, February 9, 2010

यह जवानी है मेरे दोस्त, इसे परदे क्या छिपाएं



नाकिस सा गुस्सा उसका, बड़ी भोली सी अदाएँ
यह जवानी है मेरे दोस्त, इसे परदे क्या छिपाएं

शिकवा उन्हें कि हिचकी नहीं आती, याद नहीं करते
कभी भूले ही नहीं जिसे, उसे कोई कैसे याद दिलाएं

कासिद के साथ ही आई थी कुछ भीगी सी फिजाएँ
खाली ख़त में  सब बयां कर गई तेरी अश्क  धाराएँ

होंगे आशिक़ कई जो सहते जुल्म-ओ-सितम तुम्हारे
पर होगा हम सा न कोई, जो हर जख्म पर दे दुआएँ

तेरे दो बूँद आसुओं के सैलाब से मर जाता 'दास्ताँ'
फिर क्यों हर शक्स तेरे शहर का है पत्थर उठाये 

Tuesday, February 2, 2010

अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित,

मित्रों,
कल अपने जन्मदिन पर कुछ क्षण ऐसे भी आये, जब चहुँ ओर की उल्लास और शोर शराबे के बीच मैं आत्म मनन में जुट गया - जीवन के बारे में सोचने लगा. (शायद बढती उम्र का असर होगा!!) . उन्ही विचारों को कविता का रूप देकर आपसे साँझाकर रहा हूँ. आशा है कि आप मेरी इस आत्म-चिंतन को परोसने की धृष्टता को अपना प्रेम देकर क्षमा करेंगे.
सादर,
सुधीर




अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित,
या जीवन-लालसा में व्यर्थ श्वांस-घट रिक्त ...

दो-राहों से पटे समर में, कब संशय-मुक्त
जो पथ पकड़ा क्या वही सहज उपयुक्त
न नाप सका जिन पगडंडियों की लचक
क्यों उनकी कमनीय कामनाओं से व्यथित?
अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित.... 

अधजल गागर का हैं यह थोथा स्वर,
या शुन्यता देती चुनौती मुझको प्रखर
मोक्ष मेरा क्या ज्ञान-सिन्धु आप्लावित
मुक्ति-मार्ग होगा श्रम-साध्य स्वेद लिप्त
अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित....

मखमली स्वप्निल संभावनाओं से सुसज्जित
इच्छाओं आकांक्षाओं की अट्टालिकाओं से सृजित
क्या होगा मेरा स्वर्णिम भावी-भविष्य परिलक्षित
या कपोल-कल्पित तृष्णामयी होगा जीवन व्यतीत
 अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित....

काल के कपाल पर रहूँगा एक अरुणिम तिलक,
यश कीर्ति की रश्मिया लेकर फहरेगा मेरा ध्वज
या कौन जाने? मरू में अंकित एक रेखा की तरह
क्षण भर में ही हो जाये मेरा अस्तित्व विलुप्त
अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित....

अनुभव-बही में हुआ एक वर्ष और अर्जित,
या जीवन-लालसा में व्यर्थ श्वांस-घट रिक्त ...

Tuesday, January 26, 2010

बीता हुआ कल...




बीता हुआ कल, मिल जाये कहीं, किसी मोड़ पर
बढ़ जाना तुम हँसकर, सिसकता उसे छोड़कर


न सुनना उसकी कोई दिलकश कहानी
न बहाना आँखों से दो बूँद पानी ...
कसकर थामना तुम अपने दामन को
बिफर कर न पकड़ ले वो पागल-
तुम्हारे अरमानों के  आँचल को 


न ठहरना पलभर, न देखना दम भर
नज़रें झुकाकर चुपचाप निकल जाना
पूछें जो कोई तो तुम कर लेना बहाना 
बचकर  कर चलना, उस मोड़ पर - 
कहीं थाम न ले कदम तुम्हारे,
कोई सिसकी, वहाँ दम तोड़कर


संभलना, यहाँ राख में आग भी है!
रिश्तों में अभी बाकी साँस भी है!
कोई बेपर्दा आह तुम्हारी,
हवा का काम न कर दे
बीते किस्से कहीं आम न कर दे


रोकना सिसकियाँ उस मोड़ पर,
बढ़ जाना हँसकर, सिसकता उसे छोड़कर.....

Tuesday, January 19, 2010

यह मध्यम-मध्यम चढ़ती जीवन बेला है

मित्रों,
शांतनु ने  जब प्रातः काल भ्रमण में रूपसी  गंगा का ऐश्वर्य प्रथम बार देखा होगा तो उनके मन में क्या विचार उत्पन्न हुए होंगे...इसी कल्पना को लेकर कुछ पंक्तिया लिखी हैं. आशा है कि आपका प्रेम मिलेगा...



यह मध्यम-मध्यम चढ़ती जीवन बेला है,
उस पर देखो कैसा कुसुम मृदुल सवेरा है

यौवन सुरभि मद-मस्त पवन को छलती है
अरुण-कपोलों की लाली गगन में घुलती है
अधर-कम्पन पर भ्रमित भ्रमर-दल गुनगुनाते हैं
देख अलक की रंगत श्यामल मेघ-घन लजाते हैं
प्रातः का है स्वप्न या साकार मैंने तुझको देखा है
यह मध्यम-मध्यम चढ़ती जीवन बेला है,

कनक किरण की कांति लिए यह कंचन-काया है,
मदन-मोहती मादक क्या मृगतृष्णामयी  माया है
होकर परास्त पद-गिरे पराक्रम  ऐसी पद्मा-छाया है
सहस्र नृप करें सामर्थ्य समर्पण ऐसी सुदर्शन-आभा है
बहक रहा मैं मधु-पीकर या प्रीत-पाश तुमने फेंका है
यह मध्यम-मध्यम चढ़ती जीवन बेला है

मोक्ष-कामना भ्रमित हुई और तप कितने खंडित
आत्म-ग्लानि में प्रज्वलित कितने तापस पण्डित
विस्मृत विद्या-विज्ञान सभी, छवि तेरी ही अंकित
दो कण यौवन मदिरा के पी क्यों  न मैं हूँ दण्डित
निष्फल निष्काम मृत्यु या तुझ संग जीने का फेरा है
यह मध्यम-मध्यम चढ़ती जीवन बेला है

यह मध्यम-मध्यम चढ़ती जीवन बेला है,
उस पर देखो कैसा कुसुम मृदुल सवेरा है

Tuesday, January 12, 2010

बचना वो हँसकर मिलता है दोनों बाहें फैलाएं




बचना वो हँसकर मिलता है दोनों बाहें फैलाएं
मुश्किल में होगा न जाने कौन सा काम बताए

चुनावी मौसम था, वादों की बयार में गुजर गया
आओ अब खुद सुलझाएं अपनी अपनी समस्याएँ 

रही बाट जोहती शिक्षक की किनती सारी कक्षाएँ
ट्युशन से पार लगेंगी इस साल की भी परीक्षाएं

सच ही होगी खबर दंगों की आज के अखबार में
सरकार ने कहा सब विपक्ष ने हैं फैलाई अफवाहें

दाल-रोटी महंगी हुई पर जीने की और विवशताएँ
घी-लकड़ी के दाम हैं दुने बड़ी महंगी पड़ेगी चिताएँ

न कर उम्मीद दास्ताँ किसी भी पीर औ' मुर्शिद की
बदलनी किस्मत हैं तुझको तो खुद गढ़ अपनी राहें

Tuesday, January 5, 2010

कतरा कतरा मैं बह जाऊंगा



मकाँ इक पुराना हूँ मैं, तेरी गर्म सांसों से ढह जाऊंगा
न रो मेरे काँधों से लगकर, कतरा कतरा मैं बह जाऊंगा

आशिक़ बनकर जिया हूँ मैं, आशिक़ बनकर मर जाऊँगा,
छिपाया ताउम्र नाम जो आखिरी हिचकीं में कह जाऊंगा

रात-रात जागा हूँ मैं, चुभते हुए ख्याबों की मानिंद
सुबह एक प्यास  की तरह,  तेरी आँखों में रह जाऊंगा

आता ही नहीं हूँ मैं, तेरी दर पर दिल लगाने के डर से,
तेरे आंसूओं का इल्म मुझे, अपना दर्द तो सह जाऊंगा

इक फकीरी ख्याल हूँ मैं  'दास्ताँ' अजनबी नहीं कोई,
तेरे शहर में किसी भी  गुमनाम गली में लह जाऊँगा
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