आँखें थकती नहीं, राह थक जाती हैं...
तेरी पत्थराई नज़रों की
चुभन से घबराकर
चहलकदमी करती हैं,
तो कभी - सरपट
दौड़कर लौट आती हैं,
तेरी नज़रों की चुभन के बीच...
मुझको मालूम हैं वो राह
कभी चिलाकर कभी गुर्राकर,
या यूँ ही फुसफुसाकर
सन्नाटों की ओट में,
तेरी खामोशी से
दूर निकल जाना चाहती हैं
पर न जाने क्यों -
किसी हारे हुए सिपाही सी लौट आती हैं
तेरी नज़रों की चुभन के बीच...
बिखरे धुंधले अंधेरों और
आखिरी साँस तक जूझते चिरागों के बीच,
आती जाती रोशनी में,
फैलते सिमटते सायों को खीच
एक गुमशुदा अक्स की तलाश में
किसी मोड़ पर पा लेने की आस से
दौड़ भागकर, कुछ पल हांफ कर -
एक नाकाम टीस पालकर,
थक हारकर फ़िर लौट आती हैं ,
तेरी नज़रों की चुभन के बीच...
तेरी बर्फीली पत्थराई खामोश -
बेनूर आंखों की कहानी,
कितने जाने-अनजाने चेहरों और
देखें भूले राहगीरों की जुबानी,
सुनता आया था मैं, माँ !
पर आज मैं समझा माँ!
उस अंतहीन इंतज़ार का मर्म,
वात्सल्य और ममता का धर्म,
जब ख़ुद छोड़कर आया हूँ,
हॉस्टल के खाली कमरे में,
बच्चों को मैं माँ,
'कुछ' बन जाने को -
इस चाही अनचाही दौड़ में,
एक कदम सबसे आगे बढ़ जाने को ....
अब सूने घर की खाली चौखट से ,
इस आती-जाती राह को,
देखता हूँ और सोचता हूँ -
आँखें थकती नहीं, राह थक जाती हैं...