दर्द-ए-दिल दिल तक ही रखूँ, यह ज़रूरी तो नहीं,
सरेआम रों दूँ, पर ऐसी भी मेरी मजबूरी तो नहीं
ज़माने का दस्तूर निभाना, है हिदायत वाइज़ की
फिर मिलेगी जन्नत पर यह उम्मीद पूरी तो नहीं
डरता हूँ बेअदबी की तोहमत न दे मुझको ज़माना
बस सच कहता हूँ, फितरत मेरी जी-हुजूरी तो नहीं
दर्द हद से गुजर गया होगा जर्ब चाक-जिगर का
आवाज भर्राई है पर ऑंखें उसकी सिंदूरी तो नहीं
खो गया कहीं रिश्ता हमारा वक्त की सियासत में
फिर भी पास है तू, एक हिचकी कोई दूरी तो नहीं
वो जाते जाते जिंदगी मेरी ख़लाओं से भर गया
शिकवा क्या करे दास्ताँ, जिंदगी अधूरी तो नहीं