एक दिन संध्या-बाती के बाद
अपने छत की मुंडेर पर बैठकर
किसी पुराने प्रेमी की तरह
अमावस के आकाश को निहारकर
दार्शनिक मन ने प्रश्न उछाला
सत्य क्या हैं - अँधेरा या उजाला?
मृत्यु या जीवन? जड़ या चेतन ?
जब ब्रम्हांड में चंहु-ओर व्याप्त हैं
तिमिर सघन, तमस सरल
सिर्फ़ ज्योति ही तो हैं विरल
अमाप्य दूरियों के सागर में,
जहाँ रश्मि भी है बूँद गागर में,
थक जाती हैं जहाँ रोशनी राहों में
बिखर जाती हैं हैं अंधेरे कि पनाहों में
सत्य कैसे प्रकाश हो गया -
सर्वत्र व्याप्त अंधेरे का
कैसे विनाश साम्राज्य हो गया
मृत्यु भी एक अटल सत्य,
रूप चाहे हो जितना विभत्स्य।
निर्विकार सबको अपनाती हैं -
अनंत तक माँ सम गोद में उठाती हैं।
जिन्दगी का क्या?
प्रेयसी सा लम्हा दो लम्हा लुभाती हैं ,
एक प्यास और ललक से तडपती हैं ,
आँचल झटक , नज़रें पलट
न जाने कब चुपचाप निकल जाती हैं।
फ़िर क्यों उत्साहित नेत्रों से देखते हैं
सुबह के क्षणभंगुर प्रकाश को
रोशनी से भरे आकाश को
निमिष भर जीने की आस को
दो पल के जीने के प्रयास को
शायद, यह ही मानवपन हैं...
जिसका संघर्ष ही प्रण हैं ....
सत्य जानकर भागें क्यों?
बिना युद्घ के हम हारें क्यों ?
दो पल का जुझारूपन -
उससे क्या उत्तम जीवन
यूँ ही मिटते बढ़ जायेंगे
एक जीवन से
सौ जीवन कर जायेंगे
तिमिर बाँधता रहे ज्योति को ,
हम दीप नए जलाएंगे ।
मानव हैं - श्रम का पूजन कर
संघर्षगीत ही गायेंगे ।