प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, December 29, 2009

'एक्सक्लूसिव' खबर





कल भूख से मर गए कुछ गरीब बच्चे मेरे शहर में
यह हृदय-विदारक खबर जब किसी चैनल पर न आई
इक नए युवा पत्रकार के दिल की धड़कन घबराई
होकर परेशान उसने यह बात अपने संपादक से उठाई

संपादक ने कहा - बड़े नौसिखिया हो यार !
किसने बना दिया हैं तुमको आज का पत्रकार?
जो मरे वो तो बच्चे थे, बस  भूखे  लाचार
इसमें इन्वोल्व  न कोई नेता, भाई या तडीपार

खबर मैं  छाप दूं अभी पर इससे चैनल क्या पायेगा
यह मुद्दा मुश्किल  से दस सेकंड भी न चल पायेगा
कुछ दिन पड़े रहने दो लाशें, मुनिसिपल इश्यु हो जायेगा
तब यही खबर अपना चैनल एक्सक्लूसिव ले आएगा

चिंता न करो, तुम्हारा रिसर्च बेकार नहीं जायेगा
जब खबर लायेंगे तो ये ग्राउंडवर्क  काम आयेगा
भूलना मत, दो चार फोटो आज की भी  लेते आना
 मुश्किल होता हैं वरना एक्सक्लूसिव खबर का बैकग्राउंड बनाना

पहले बेचारा पत्रकार चकराया
और फिर  अपनी चिंता जतायी,
मान्यवर अगर नगरपालिका वालों ने
उन बच्चों की  लाशें आज ही हटाई

संपादक खिलखिलाया और फिर हल्के से फुसफुसाया
नौसिखिये हो इसलिए तुमने यह मुद्दा उठाया
चुपचाप गायब होती लाशों का मसला और बिक जायेगा
साजिश का एंगल  तो चैनल की टीआरपी बढाएगा

Tuesday, December 22, 2009

रात भर....



जागा रात भर, सोया  न बिस्तर बेगाना मेरा,
हर करवट सदाएँ देता था सपना पुराना  तेरा.

सोचा रात भर, वजहें तेरी बज़्म में आने की,
काश मुझको मालूम न होता ठिकाना  तेरा

चर्चा रात भर, चलता रहा महफ़िल में मेरा,
जब बात ही बात में निकला फ़साना तेरा

रोया रात भर, आमावस को चकोर कोई,
दूर से देखा होगा उसने चेहरा सुहाना तेरा

घूमा रात भर, गली-कुंचा बदहवाश बेचारा
पागल सा दिखता था, होगा दीवाना तेरा

भीगा रात भर, अपने खूँ के दरिया में दास्ताँ
रंजिशे थी शहर की हमसे औ' बहाना तेरा

Tuesday, December 15, 2009

माँगा खुदा से अब न हो रहबर ज़माना मेरा




माँगा खुदा से अब  न हो रहबर ज़माना मेरा |
बस हुआ संगदिल रहनुमाओं से दिल आजमाना मेरा ||

अपनी अपनी दूकान पर यहाँ सबके अपने रसूल,
बिकते मजहब,  बिकती मुहब्बत और बिकते उसूल
अश्कों को कीमत, हर अहसास को तिजारत कबूल
यूँ ही अपने वजूद के तोल-मोल  भाव तलाशना  मेरा

बस हुआ ठगते  रहनुमाओं का दाम लगाना मेरा
माँगा खुदा से अब न हो रहबर ज़माना मेरा



झूठ की सियासत में, हमेशा सच बदलते लोग
झूठे वादे, झूठी कसमे, झूठी रस्मे निभाते लोग,
झूठे फलक के नीचे ऐतबार के कच्चे-घर बनाते लोग
ऐसी ख्याली दुनिया में इक सब्जबाग तलाशना  मेरा

बस हुआ झूठे  रहनुमाओं का दिल बहलाना मेरा
माँगा खुदा से अब न हो रहबर ज़माना मेरा



फरेब से बचने को फरेब के जाल बिछाती दुनिया
कुछ ऊँचा उठने को सबके सर चढ़ जाती दुनिया
मतलब से नए खुदाओं के सजदे में सर झुकाती दुनिया
ऐसे में अपनी खुदगर्ज अजानों के नए  मायने तलाशना मेरा

बस हुआ फरेबी रहनुमाओं पे भरोसा जाताना मेरा
माँगा खुदा से अब न हो रहबर ज़माना मेरा



मंजिले खोकर भूले रास्ते को घर बनाते बन्दे
हक-ए-आरजू में फर्ज पर मिट्टी गिराते बन्दे
भुलाके दीन-ओ-ईमान, रहमत के कसीदे रटाते बन्दे
ऐसे भूले-बिसरे अरमानों में गुमशुदा ज़मीर तलाशना मेरा

बस हुआ  भटके रहनुमाओं को सरपरस्त बनाना मेरा
माँगा खुदा से अब न हो रहबर ज़माना मेरा


माँगा खुदा से अब न हो रहबर ज़माना मेरा
बस हुआ संगदिल रहनुमाओं से दिल आजमाना मेरा

Tuesday, December 8, 2009

हुआ इश्क में रुस्वां, इक नई पहचान ढूंढता हूँ



मुसाफिर हूँ यारों, इक शहर अनजान ढूंढता हूँ
हुआ इश्क में रुस्वां,  इक नई पहचान ढूंढता हूँ

मजहब के वादों पर मरते  रोज़ इंसान देखता  हूँ
बता दे जो खुदा को मेरा दर्द,  वो अजान ढूंढता हूँ

दहशत में जीता है, बनकर तमाशाई मेरा  शहर
फूँक दे जो मुर्दा दिलों में जान, वो इंसान ढूंढता हूँ

सरहदों के नाम पर, बाँट ली है यह ज़मी सबने,
पनाह दे जो हर किसी को, वो आसमान ढूंढता हूँ

तंग-हाल जीकर भी, क्या पाया  है सुकून किसी ने
बेच के उसूल, इस दौर में रास्ता आसान  ढूंढता हूँ

दुश्वार है बेखौफ, कुछ सुनना-सुनाना इस जहाँ में
जहाँ हो गुफ्तुगू खुद से, वो इलाका वीरान ढूंढता हूँ

असर कुछ तो हैं उसकी जफा का  'दास्ताँ' तुझपर,
देख के वो नज़रें फिराता है औ' मैं अहसान  ढूंढता हूँ

Tuesday, December 1, 2009

मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!





बड़ी मुद्दत के बाद आज तन्हा हूँ,
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
आंसू न पोछो, मुझे धीर न दो
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!

अपनों  को परखने की,
मुझको न थी आदत ही कभी,
वो छलतें है मुझको, तो छल  लेने दो.
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!

माँगा ही किया है दुनिया ने हरदम,
मुझसे कीमत हर रिश्ते नातों की
आज देती हैं वो धोखा तो दे लेने दो.
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!

जिन्दा रहने की है शर्त अगर,
ताउम्र सांसों की सलीब उठाना,
तो पल-पल मर के भी जी लेने दो.
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!

सजदे में ही रहा जीता मैं,
बचता बगावत के इल्जामों से,
अब कटता सर मेरा, तो कट लेने दो.
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!

गैर-ज़रूरी  है अब दुनियादारी में
इन बेमतलब उसूलों का सबब.
कुछ बेचता हूँ मैं, तो बिक लेने दो
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!

औरों  के बनाये  निज़ामों  पर,
जीना ही तो रही किस्मत मेरी,
(अपनी इक) ख्वाहिश पर मरता हूँ, तो मर लेने दो
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!

बड़ी मुद्दत के बाद आज तन्हा हूँ,
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
आंसू न पोछो, मुझे धीर न दो
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!

Tuesday, November 24, 2009

हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!




हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

 जब एक कट-चाय समोसे से,
हम यह दुनिया नापा करते थे,
एक ख्याली धागे के दम पर,
हम  हर सिस्टम बांधा करते थे
यूँ तो हर बात फलसफे पर होती थी
एक हम ही ज्ञानी-विज्ञानी थे  बस्ती  के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के  !!

हर जटिल विषय की कक्षाएँ
केवल  जीकेडी पर लगती थी
सत्तर प्रतिशत अटेनडेंस पाने को
सिर्फ प्रॉक्सी की कौडी चलती थी
यूँ तो (असाइनमेंट) टोपिंग में हम शातिर थे  पर
कुछ कर जाते थे श्रमदान जूनियर्स जबरजस्ती से
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

वैसे तो एक ख्वायिश की उलझन में
अक्सर कितनी राते जागा करते थे,
पर हर रात परीक्षा से पहले हम,
हर दिन पढने की कसमे खाया करते थे
यूँ तो एक साल में पढना मुश्किल था पर
कई पोथी घिस जाते थे एक रात में चुस्ती से
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

एक अदद पिक्चर की खातिर हम,
हॉस्टल में सबसे चिल्लर  माँगा करते थे
मुफलिसी के दौर  रहे तो सब मिलकर
कपूरथला गंजिंग की गलियां नापा करते थे
यूँ तो एक मैगी  से  दस-दस खाया  करते थे
उधार चुकाने को दिखला देते थे दांत बत्तीसी  के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

हर अखबारी कतरन पर जमकर ,
हम सबके रिश्ते छाना करते थे,
सबकी प्रेम-कहानी पर हँसते हम पर
'उससे' मिलकर बगले झाँका करते थे
यूँ तो हर बात खनक से होती थी
पर क्या समझाते उसको कारण चुप्पी के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

* ~ * ~ * ~ * ~ * ~ * ~ *
यह कविता अचानक फेसबुक पर एक लंगोटिया यार के मिल जाने पर मन से निकली आह से उत्पन्न हुई है. उससे बात करते करते कॉलेज के पुराने दिन याद आ गए. जब परीक्षा से एक रात पहले पाता चलता था कि एक पूरी कि पूरी किताब कोर्स में हैं जिसका हमे पाता ही नहीं था ...हर जटिल विषय की क्लास से हम ऐसे गायब रहते थे जैसे कि गधे के सर से सींग... सत्तर प्रतिशत उपस्थिति दर्ज हुई नहीं कि उस क्लास से हमारा डब्बा गोल, उसके बाद तो हम केवल ढाबों पर चाय की चुस्की का आनंद लेते मिलते थे. सांख्यिकी से ज्यादा मेंहनत पिया-मिलन वाले जोडों की गणना में करते थे. उस समय हम समाज और संसार के हर विषय पर बहस करने का माद्दा रखते थे और संसार की समस्त समस्याओं का समाधान तो हम बैठे बैठे चुटकियों में निकाल लेते थे. बस ढाबे की एक सांझी चाय और समोसे का भोग लगता रहे (चाहे उधारी पर ही क्यों न ) तो सामायिक विषयों से लेकर लोकल प्रेम प्रसंगों पर हमारी ज्ञान ग्रंथि खुली रहती थी. क्योंकि यह रचना दिल की अभिव्यक्ति है इसलिए मैंने कई परचित देशज (और विदेशज) शब्दों को भी नहीं बदला है. कुछ अप्रचिलित शब्दों की परिभाषा निम्न  है.

  •  जीकेडी: गुप्ता का ढाबा. लखनऊ आई.ई. टी (इन्जिनेरिंग कॉलेज) के साथ में चलने वाला ढाबा. हमारे छात्र-जीवन में सारे के सारे ढाबों का विलायतीकरण उनके नामों के संक्षिप्त करके ही किया गया था जैसे मिश्रा का ढाबा यमकेडी, गुप्ता का ढाबा जीकेडी. इस ढाबों ने जितने सपनों को बनते बिगड़ते देखा हैं शायद ही आस-पास को कोई ईलाका उसकी बराबरी कर पाए - चाहे वो नौकरी या छोकरी के सपने हो या पनपती छात्र-राजनीति की महत्वाकांक्षाएं.


  • टोपिंग: प्रोजेक्ट या असाइनमेंट की नक़ल (टोपने अथवा टीपने) की कला; जो अक्सर एक घिस्सू छात्र के समाधान निकालने के बाद अक्सर स्वयं या जूनियर्स द्वारा कक्षा के अन्य  उन्मुक्क्त विचारों वाले छात्रों के लिए प्रतिलिपि बनाने की कला के लिए प्रयुक्त होता है.

  • गंजिंग = लखनऊ के प्रगतिशील हजरतगंज के इलाके में जीवन के फलसफे और रंगीनियों को तलाशते हुए हम जैसे फक्कडों का घूमना

Tuesday, November 17, 2009

सम्पाति-प्रलाप



यह रचना गत माह (टोलेडो) चिडियाघर में एक एकाकी गिद्ध को देखकर उत्पन्न हुई. मन में विचार उठा कि जटायु की मृत्यु का समाचार सुनकर सम्पाति के ह्रदय को क्या अनुभूति हुई होगी और परिणाम स्वरूप इन पंक्तियों   ने  जन्म  लिया

आज बैठा हूँ मैं सम्पाति विवश निराश,
निरीह निहारता नितांत, निरांत-नभ  को
सोचता उन  क्षण को जब नापा था मैंने,
बस निश्चय से  कई परिधियों में इस जग को
तब भी कभी जब यह विस्तृत व्योम  मुझे,
अपने कद से थोडा ऊँचा  लगने लगता था
अविरल उठता-गिरता उद्दंड दिवाकर अपने मद में,
 मेरे शौर्य-पराक्रम  पर खुलकर हँसने लगता  था
तब मुझको उड़ने को नित्य प्रोत्साहित करते थे,
वे अबाध्य  अजेय ओजस्वी अरमान तुम्हारे
पुनः  आओ न इस बिसरे बिखरे जीवनपथ पर ,
फिर से तराशो ये झुलसे खंडित आहात पंख हमारे


शत-योजन दृष्टि का वर-आशीष भी अभिशप्त है
यदि अनय के आगे नतमस्तक गौरव गरुण-रक्त है
प्रत्यक्ष श्वांस में भरकर विष को भी क्या पाया मैंने
सहस्र सर्प-दंश सा जीवन, सब यश व्यर्थ गंवाया मैंने
किसी कन्या के करुण-क्रंदन पर उद्वेलित न ह्रदयांगार हुआ
सुन वेदना के स्वर न धमनियों में ऊष्मा का संचार हुआ
तुझसा सामर्थ्य नहीं था मुझमे कि दस-मुख को ललकार लडूं
ऋषि चंद्रमा* का ऋण ये जीवन पर कैसे इसको धिक्कार धरूँ
मेरे बंधु-क्षय का मूल्य अब दम्भी दशग्रीव दशानन भी चुकायेगा
खग-शापित हो बैरी और बंधु-घात से ही जीवन-च्युत हो जायेगा
जीवन में कुछ क्षण और  जीने की प्यास जागते थे वो
निश्छल निष्कपट निर्मल मृदुल अहसास तुम्हारे
पुनः आओ न इस बिसरे बिखरे जीवनपथ पर ,
फिर से तराशो ये झुलसे खंडित आहात पंख हमारे


* चन्द्रमा नामक ऋषि ने ही सूर्य दहन के पश्चात् सम्पाति को नव जीवन दान दिया था
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही|  लागी दया देखि करि मोही || 
(किष्किन्धाकांड; रामचरित मानस)

Tuesday, November 10, 2009

सुना है उनकी तस्वीर ईनाम पाने को है



रोते बच्चे जो, मोहताज़ दाने-दाने को है
सुना है उनकी तस्वीर ईनाम पाने को है

फिर मुस्कुराती है, हर इक बात पर वो,
आँखों में उसकी सावन छाने को है.

सहमने लगा हैं यह शहर शाम ही से,
लगता है कोई त्योहार आने को है

बदलने लगे हैं, बात बात-ही-बात में वो,
दिल-ए-नादाँ तू धोखा खाने को है

तुझसे ही हैं, बावस्ता सारे गम मेरे यूँ तो
ज़माने की खुशियाँ वर्ना लुटाने को है

मिलने लगे हैं हंसकर सब दोस्त मुझसे,
खंजर कोई दिल आजमाने को है

मौत की राह है, देखता 'दास्ताँ' तू क्यूं
बहाने कम क्या जान जाने को हैं

Tuesday, November 3, 2009

काश! हम भी एक मौसमी दरख्त हो पाते




मौसम की करवट पर, 
हवाओं की छम-छम पाजेब पर,
आशिक़ मिजाज पेडों को
जब रंग बदलते देखता हूँ
तो सोचता हूँ क्या यही प्यार है,
इश्क का इज़हार है

एक मौसम का साथ,
चंद दोपहरियों का ताप
जिनमे साथ कुछ धुप सही, कुछ छाया
हवाओं से फिर न जाने क्या रिश्ता बनाया
कि उनकी सर्द होते स्पर्श के स्पंदन से
पाकर एक अनुभूति अपने अंतर्मन में
कुछ यूँ पसर जाते हैं,
अपने पतझड़ के दर्द को भुलाकर भी,
यार के लिए रंगीन नज़र आते हैं ....
मौत के आगन में, दर्द  के दामन में 
दीदार-ए-यार से गुल सा खिल जाते है

(और एक हम हैं कि )
एक मौसम नहीं सौ ऋतुयें देखी हैं,
एक छत जो  ईंट-ईंट जोड़ी है
उसके नीचे एक रिश्ता भी न रच पाते है
तेरे मेरे शब्दों में  खुद अपनों से कट जाते हैं
अपने अपने गम का पत्थर लेकर
मुकम्मल रिश्तों को भी चुनवाते हैं 
अपनी गुरूर की मैली चादर
झूठी खुशियों  की  खातिर इतना फैलाते हैं
सिर्फ गम के ज़ार-ज़ार पैबंद नज़र आते है

काश! हम भी एक मौसमी दरख्त हो पाते
सांसों की शाख छोड़ने से पहले
एक बार ही सही ,
यार के लिए यूँ ही मुस्कुराते,
जाते जाते उसका दामन रंगों से भर जाते !!
काश! हम भी एक मौसमी दरख्त हो पाते !!

Tuesday, October 27, 2009

तेरी रुसवाई से, मेरी बेवफाई का इल्जाम अच्छा है




यह मेरे दर्द का फ़साना, कुछ झूठा कुछ सच्चा है
शब-ए-हिज्र की हैं बातें, तुम ही सुनते तो अच्छा है

कहकर तो देखो कभी, परियों की बातें उनसे
हर संजीदा दिल में, सहमता हुआ एक बच्चा है

इसी बहाने पहचान हो गई दोस्त दुश्मनों की,
भरी रईसी से, मेरा मुफलिसी हाल अच्छा है

गोया दिल लगाने का, उनको है तजुर्बा इतना,
पहली नज़र में दिल लेकर, कहते हैं कि अच्छा है

क्या बताते हम नाम सबको, अपने हसीं कातिल का
सुना है कि इस शहर में, हर शख्स कानो का कच्चा है

कुछ आरजू हमको भी थी, इस दिल को  मिटाने की
वरना तेरी महफ़िल से तो, अपना मयकदा अच्छा है

किससे कहता दास्ताँ, सबब तेरी बेपरवाह मुहब्बत का
तेरी रुसवाई से, मेरी बेवफाई का इल्जाम अच्छा है

Tuesday, October 20, 2009

दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ





दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ
पर कोई क्या बताए क्यों थी दिलों में दूरियाँ

दिल में रख छोड़ा था एक ख्याब सुनहरा सा
जिनमे हमेशा वो रहा जिसके ख्याबों में मैं ही कहाँ था?
और क्या कहें,  क्या रही हमारी मजबूरियाँ
दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ

उम्र-भर बैठे रहे, जिसकी राहों में हम नज़रें बिछाए
मुझसे मिला वो, तो उसके पास मेरे लिए वक्त ही कहाँ था?
और क्या कहें, क्या रहीं ज़माने भर की मसरूफियाँ
दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ

मंजिलों की तलाश में हम चले तो सब साथ-साथ थे,
जिसके साथ मैं चला, उसके हाथ में मेरा हाथ ही कहाँ था?
और क्या कहें, क्या रही मेरी बदनाम कहानियाँ
दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ

हाल-ए-दिल कहने को लिखी जिसके नाम गज़लें तमाम,
उनको सुनने को वो, महफ़िल में तन्हा आया ही कहाँ था?
और क्या कहें, क्या रही उस शाम मेरी खामोशियाँ
दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ

दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ
पर कोई क्या बताए क्यों थी दिलों में दूरियाँ


Saturday, October 17, 2009

जितना संभव हो पथ आलोकित करें (दीवाली शुभकामनाएँ)



जिस प्रकार दीपावली के असंख्य दीपो के अथक और निस्वार्थ श्रम से तिमिर प्रभावहीन हो जाता और अमावस की रात भी पूनम के तरह मधुर लगती हैं. उसी प्रकार आपका जीवन भी निस्वार्थ और अथक मानवीय श्रम से यश और कीर्ति की ज्योत्सना से आलोकित होकर अज्ञान और दारिद्रय के तमस पर विजय प्राप्त करे.  इसी कामना के साथ आज की कविता आपको समर्पित है.  


दीवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ
* ~ * ~ * ~ * ~ * ~ * ~ * ~ * ~ * ~ *


 अमावस की काली रातों में
जगमग तारों सा ह्रदय धरें,
चन्द्र-राह ताकें क्योंकर हम,
जितना संभव हो पथ आलोकित करें

देवालय आलोकित किए कई,
आओ अब कुछ यूँ जलें
तूफानों से जूझती जो कश्ती,
उसके हम आशा-दीप बने

कितने घट जो अब भी हैं रीते-अंधियारे
अज्ञान-पाश में फँसकर खुद से भी हारे
उनकी सूनी चौखट को रौशन करने को,
आओ हम सप्त-सुरों  के ज्योति-गीत बने

जितना संभव हो पथ आलोकित करें !!

Tuesday, October 13, 2009

साँसों में लिपटी पड़ी है मिट्टी, लोग उठाते क्यों नहीं.




इश्क का है फ़साना, सबको खुल कर बताते क्यों नहीं.
दिल पे हैं ज़ख्म कई, ग़ज़ल कोई गुनगुनाते क्यों नहीं

वो कहते हैं कि इश्क में शर्म-औ'-हया हैं पिछले ज़माने की बातें,
हमने तो कह दिया है खुलकर, तुम अब नजरें मिलाते क्यों नहीं

बहुत मजाजी है मिजाज़-ए-यार हमारे दिलबर का,
ख़त लिखते हैं कि हम कब से रूठे हैं, मानते क्यों नहीं

दिल लगाकर दिल मिटाना हैं आदत हुस्नवालों की,
वो आकर मजबूरी-ए-हालात गिनाते क्यों नहीं

वक्त की हवाएं धुंधला देती हैं हर मंजर निगाहों में,
कितने तूफां गुजरे, तेरे ख्याबों को मिटाते क्यों नहीं.

इश्क में जलकर मर मिटना तो हर परवाने का हैं जुनूँ,
कत्ल हुए कितने, लोग शमाँ-ए-बज्म को बुझाते क्यों नहीं

बहुत रुस्वां हुआ हूँ तेरे इश्क की खातिर मैं,
तुम बीती बातों से कुछ पर्दा उठाते क्यों नहीं

देते ही रहते हैं तंज़ के मुबारक तोफहे मुझको,
नाकाम फसानों को ज़मानेवाले भुलाते क्यों नहीं 

गम-ए-हिज्र का मय औ' मीना से हैं रिश्ता पुराना ,
कशाने-इश्क पूछे है साकी पर पिलाते क्यों नहीं.

कब का मर गया है दास्ताँ उसके जाने के बाद,
साँसों में लिपटी पड़ी है मिट्टी, लोग उठाते क्यों नहीं.

Tuesday, October 6, 2009

दीप-पीड़ा



कभी-कभी ऐसा भी होता है,
जिंदगी के रोज़ बदले चेहरों में,
चुपचाप जलते दीप के नीचे
खामोश पनपते अंधेरों में |
मांगता हैं कोई, मौन ही
अपना अंश का खोया प्रकाश,
बाँटकर चहूँ ओर रश्मि-उल्लास|
फिर देखकर अपना नीड़ निराश,
सोचता है अनवरत निर्विकार
देकर वेदना के स्वरों को विस्तार,
बिना चीत्कार, बिना हाहाकार,
क्या यही मूल्य है, जग-कल्याण का?
सर्व-हिताय शीरोधार्य ज्योत्सना प्राण का?      
विस्तृत अनन्त तक मेरा ज्योति यश
मेरी परिधियों में ही क्यों पनपता तमस?
समरग्रस्त मैं जब सदैव ही तिमिर-प्रसार से
ठहरा कृष्णांश  मेरे सानिध्य, किस अधिकार से?

कौन समझाए उन भावुक युद्धरत बिचारों को |
सबके लिए स्वयं दहकते , राख होते अंगारों को  |
जिन  अंधेरों से वो उम्र भर लड़ते हैं,
वो उनकी ही पनाहों में ही पनपते हैं,
दोनों  ही  पूरक हैं एक दूसरे के,
बिना  परस्पर अस्तित्व दोनों ही अधूरे से   |
यदि तिमिर पूर्णत: मिट जायेगा,
फिर नव दीप कौन जलाएगा  ?
नकारे जाते हैं दोनों दीप और अँधेरे,
आते  ही  मृदुल सुबह सवेरे |
स्वार्थवश छलता हैं दोनों को ही रातभर कोई,
उनके अपने अपने धर्म के छद्म नामों  पर ,
रश्मि उत्सव की पुरातन रीति और
तमस-स्वभाव के अर्थहीन इल्जामों  पर |
हर तिमिर-पग पर प्रज्वलित  दीप कई
हर साँझ  की यही नित्य  क्रीड़ा  हैं |
अपने अस्तित्व से ही लड़ते दीपक को
कौन समझाए वस्तुतः क्या पीड़ा हैं?

Tuesday, September 29, 2009

...कोई तो मेरा किस्सा पुराना मिले


वो पलटते हैं मेरी डायरी के सफे कि कोई तो मेरा किस्सा पुराना मिले,
हर नज़्म नाम उनके औ' वो कहते हैं कोई तो मेरे यार का इशारा मिले

कुछ उनकी नाजों-अदा और कुछ मेरी यह चुप रहने की आदत
कभी तो समझे वो इन ज़ज्बातों को तो सबको एक फ़साना मिले

अनुभव की चांदी जब जुल्फों पर छाने लगे औ' आइना चेहरा झुठलाने लगे
मेरी आँखों में झाँककर सँवारना ख़ुद को , तब भी तुझको वो चेहरा सुहाना मिले

हुस्न की हो मूरत अभी तुम, कई सर तेरे दर पर सजदे में झुक जायेंगे
ढलती उम्र में देखना उस चौखट को, शायद हम सा ही कोई दीवाना मिले

ख़बर हैं कि फ़िर कत्ल हुआ है उनके शहर में आशिक़ कोई ,
देखना कोई जाकर दोस्तों कहीं वो ही खंजर न पुराना मिले

मैं मर भी रहा हूँ यूँ करके कि मेरी मइयत में तो आयेंगे
कुछ तो 'दास्ताँ' उनसे खुलकर मिलने का बहाना मिले

Tuesday, September 22, 2009

क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?




क्यों मन में एक शून्य हैं पनपा,
क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?

 पाषाण हूँ, मैं कोई बुद्ध,
पक्ष में, मैं किसीके विरूद्व
क्यों फ़िर हृदय-संवेदना च्युत,
सिर्फ़ शून्य! प्रवाह सभी अवरुद्ध।।
मुझे कामना की प्यास ,
मुझे निर्वाण की कोई आस।
विदेह ह्रदय हर भावना से मुक्त,
क्यों फ़िर ह्रदय न  गीत साधना से युक्त?


नहीं पसीजता लेस भर हृदय
किसी भी करुण क्रौंच-क्रंदन पर,
नहीं दहकता सूत भर ह्रदय
आज स्वयं के भी मान-मर्दन पर
दिग्भ्रमित पथिक अथक ढूंढता हो
मंजिले ज्यूँ मध्य के पड़ाव पर
शब्द वसन लपेटे खडा हूँ, नग्न बाज़ार में,
क्यों फिर न टपकता काव्य-अश्रु  अभाव  पर?


बौधिक हो रही है काव्य-रचना,
दर्द नहीं इसमे संसार का,
रंगा-पुता हैं हर शब्द पर,
अंश नहीं हैं इसमें प्यार का,
सजे हुए हर्फ बेतरकीब कई  ,
कोई सलीका नहीं इनमे इज़हार  का
साज-सज्जित और अलंकृत हैं छंद
क्यों फिर भाव नहीं हैं कतिपय अहसास का ?


क्यों मन में एक शून्य हैं पनपा,
क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?


Tuesday, September 15, 2009

क्या गिला करें हम अपने मासूम यार का...

क्या गिला करें हम अपने मासूम यार का।
किस किस से छिपायें नाम नादाँ यार का।

जिनके लिए बदनाम हुए, वो किस्से हमारे आम करे जाते हैं
कोई तो सिखाओ यारों उन्हें सलीका इश्क के इज़हार का ।

जिस पर भरोसा किया, उन्होंने ही तमाशा बनाया प्यार का
उम्र हुई न जाने कब आयेगा अब ये मौसम ऐतबार का ।

बहुत बेंचे हैं ख्याब उन्होंने, पल भर के खुलूस की खातिर
कौन जाने वो कब बंद करेंगे धंधा दिलों के कारोबार का ।

निगाहे यार नश्तर है और हुस्न औ'अदा खंजर उनके ,
हँसकर सहते हैं जुल्म, क्या शिकवा करें उनके वार का ।

लगकर मेरे सीने से कहते हैं वो उन्हें इश्क नहीं मुझसे ,
या खुदा क्या जालिम हैं ये अंदाज़ उनके इकरार का ।


रकीबों के इस शहर में सबकी हैं हर किसी से अदावत
कौन सुनेगा 'दास्ताँ' तेरा ये किस्सा पुराना प्यार का ।

Tuesday, September 8, 2009

तुझे मुझसे प्यार न करना हैं, तो न कर



तुझे मुझसे प्यार न करना हैं, तो न कर ,
फ़िर नज़रें भी न मिला, यूँ बेकरार भी न कर।


न देख इन मस्त निगाहों से मुझे ,
हिला, रह रह कर गेसुओं की चिलमन।
दिलफेक नहीं पर आशिक मिजाज है दिल ,
रह-रह कर जुल्फ-ऐ-यार से उलझता है मन।


छोड़, ठण्डी ठण्डी आहें छिप-छिपकर,
मुस्कुरा, रह रहकर इन मासूम अदाओं से।
बेपरवाह नहीं, पर कुछ मदहोश है दिल,
रह रहकर बहकता है, हुस्न-ऐ-यार की सदाओं पे।

न दबा, गुल-ऐ-तब्बसुम यूँ हल्के-हल्के
थरथरा, रह रहकर होठों से इन हर्फ़ बेमायनों को।
प्यासा
नहीं पर, कबका मुन्तज़िर है दिल
रह रहकर मचलता है लब-ऐ-यार के पैमानों को।

तुझे मुझसे प्यार न करना हैं, तो न कर ,
फ़िर नज़रें भी न मिला, यूँ बेकरार भी न कर।

Tuesday, September 1, 2009

...और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी

(गुमनामी के सिवा) और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी

तपती दुपहरी की धुप में साथ निभाने को अपने साये नहीं होते।
भरी भीड़ की भगदड़ में गिरनेवालों को उठानेवाले भी नहीं होते ।
सबका गम बाँटता आया हूँ उम्र-भर , तो फिर आज शिकवा क्यों
यह गम ही तो हैं जिंदगी भर की कमाई मेरी ....
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...

बेरुखी को मसरूफियत, बेफिक्री को जिन्दादिली समझते हैं दुनियावाले ।
अपने ही टूटे चश्मे से सबका चेहरा देखते - समझते हैं दुनियावाले।
अपनी ही सूरत बदलता आया हूँ उम्र-भर, तो फ़िर आज गुरेज क्यों
एक नकाब की चिलमन ही तो हैं पहचान मेरी ...
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...

सबके अपने पैमाने, अपनी ही कसौटी पर परखते हैं सबको लोग,
रिश्ते खो देते हैं पर उन बीते रिश्तों के दर्द पकड़ते हैं बरसों लोग,
खोता आया हूँ रिश्तों को उम्र-भर, तो फ़िर ये गिला क्यों
एक अनजानी भीड़ में खोकर रह गई कहानी मेरी ...
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...

Tuesday, August 25, 2009

एक निर्वस्त्र दर्द


एक जागती रात के सिरहाने बैठकर,
आकाश की काली आँखों में झांककर,
मैंने अपना एक निर्वस्त्र दर्द उठाया
झूठे सपनो के तार-तार से कपड़े पहनाये
जो बचा, उसे दुनियादारी के -
फटेहाल पैबन्दों से छिपाया
न चेहरा देखा, न रूह नापी
सिर्फ़ एक एहसास पर कि
एक दिन मेरे दायरों से निकल कर
कहीं एक ग़ज़ल की खुली साँस लेगा ,
उसे दफ़न कर दिया ,
डायरी के मटमैले पन्नो पर ...

Tuesday, August 18, 2009

निचोड़ लो मुष्ठियों में सोमरस...

सारे पाठकों को राष्ट्र-स्वतंत्रता के ६२ वर्ष मुबारक!!


भर हुंकार उचक कर व्योम तक,
निचोड़ लो मुष्ठियों में सोमरस॥

बहुत अर्पित किए हृदय-सुमन
तुमने मदन मंदिरों के पट पर।
आज राष्ट्र-देवी मांगतीं हैं तुझसे,
चिता-भस्म निमिष श्वास भर ॥

अलकों की ओंट में व्यर्थ गंवाई,
दिग्भ्रमित तुमने साँझ कई।
रुधिर-श्रृंगार से करो सज्जित माँ को,
बता दो सपूतों से वो बाँझ नही॥

तिमिर वेदना होती सर्वत्र जब
स्वार्थ-कामना से हर घट लिप्त हो।
मातृ-भवन हो आलोकित तब
बलिदानी पूत हृदय प्रज्वलित हो ॥

मातृ-अस्मिता पर घात लगाये,
बैठे हैं रिपु अदृश्य असंख्य सर्वत्र ।
युगों से धमनियों में फड़क रहा जो
उन्मुक्त करो वो विहंगम रक्त ॥

हो घोष ऐसा छिटक जाए दिशाएं कुछ,
कम्पित को शत्रु-ह्रदय देखकर रूप रौद्र ।
हविस हो अहम् सबके राष्ट्र-यज्ञ में ,
निखर आए संघर्ष-धनी भारत गोत्र ॥

कल्पना में भी जो उठे मातृ-आघात को ,
तोड़ दो निर्लज्य, धृष्ट अक्षम्य उद्दंड हस्त ।
विध्वंस हो बैरस्त भावग्रस्त जीव समस्त ,
खुले हो हर प्रहार को कवच बन हमारे उन्मुक्त वक्ष ॥

हमारा युद्ध ही न एकमात्र विकल्प हो ,
शान्तिप्रियता न हमारी हीनता कल्प हो ।
बतादो विश्व को हम नहीं बिसराया हुआ गीत हैं,
शांतिदूतों की पुरातन जीत की ही रीति हैं॥

बता दो भारतपूतों को असंभव कुछ नहीं ,
चाँद क्या सूरज की तपिस भी क्षम्य नहीं।
भर हुंकार उचक कर व्योम तक,
निचोड़ लो मुष्ठियों में सोमरस॥

Tuesday, August 11, 2009

तेरे बिना एक और दिन, एक और लम्हा

तेरे बिना एक और दिन, एक और लम्हा,
यादों के सिवा कुछ और नहीं, बस तन्हा-तन्हा।

यादों के दो हर्फ़ लिए, आयत सा मैं पढता जाता,
तेरे ही नाम के नुक्ते में,जीवन का हर अर्श मैं पाता

हर पल महसूस किया हैं तुझको अपनी हर बीती धड़कन में,
तेरी यादों के आँचल में ढांपा हैं ख़ुद को जीवन की हर सिहरन में,

तू मुझसे कुछ दूर सही, पर एक रिश्ता तो अब भी मुझसे बांधे हैं तुझको
रोते हम भी सबसे छुप-छुपकर पर तेरी यादों का जज्बा थामे हैं मुझको,

और कहूं क्या तुझसे मैं, अपने टूटे तन्हा दिल का हाल प्रिय,
इन यादों में तुम हो सो जन्नत हैं बाकी सब तो दोज़ख हाल प्रिय,

तेरे जाने का कोई गम मुझको नही -तेरी यादें जो अब आती हैं,
यह तो बस फ़िर मिलने की चाहत हैं जो अब तक तडपाती हैं।

मेरे होने न होने का इतना ही सबब होगा शायद मेरे हमदम !
तू मेरी यादों में हैं अब, मैं तेरी यादों में होऊंगा तब हरदम !

Tuesday, August 4, 2009

मेरे टूटे रिश्ते का हिस्सा होगा शायद!!




आँखों के करीने में कुछ तो चुभता हैं
मेरे टूटे रिश्ते का हिस्सा होगा शायद!!


एक उम्र हुई, जब वक्त के धुंधले में,
अनजाने में दुनियादारी की ठोकर से,
तेरे मेरे ख्याबों पर पाँव पड़ा था मेरा।
मेरे मजबूर हाथों से फिसला था
एक संग चलता संग-सा रिश्ता
पर बिखरा बेआवाज़ वो कांच-सा रिश्ता !!


और मैं बेखबर न तब समझ पाया था -
कि बंद मुठ्ठियों से मैं क्या खो आया था.
कितनी बार मैंने रिश्तों के बही-खाते,
ज़ज्बातों और समझोतों में बाँटे-छांटे।
पर वो बिखरा रिश्ता कहीं न सिमट पाया,
हर बार एक तेरा ही रिश्ता घट आया ।


अब वो हाथों से छूटा बिखरा-बिखरा रिश्ता
अक्सर इन तन्हा आँखों में मिल जाता हैं -
हुई मुद्दत पर अब भी चुभ जाता हैं -
आज भी ऐसा ही कोई किस्सा होगा शायद
आँखों के करीने में कुछ तो चुभता हैं
मेरे टूटे रिश्ते का हिस्सा होगा शायद!!

Tuesday, July 28, 2009

तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता


मैंने तो सुना था कि दर्द है बड़ा खुदगर्ज होता,
हर कोई सिर्फ़ अपनी ही किसी बात पर है रोता।
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना मेरे हालत पर, ऐ दोस्त! तेरा चेहरा न भीगा होता ।

तेरी झील सी गहरी आँखों में बसा समुंदर न होता,
यूँ बिना किसी आवाज़, बेबात यह निर्झर न बहता,
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना मेरे जज्बातों पर, ऐ दोस्त! तेरा दिल न पशेमाँ होता ।

दिले-ऐ-कतरनों के सिलने का काश कोई तरीका होता,
पहचाने चेहरों की भीड़ में कोई अपना पाने का सलीका होता,
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना मेरे गम पर, ऐ दोस्त! तेरा न सिसकना होता।

(और अंत में, थोड़ा अलग सा ...)
हर किसी की कहनेवाले को न है कोई सुननेवाला होता,
हंसकर मिलनेवालों का है अक्सर भीगा तकिया होता,
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना सबके के लिए मरने वाला, ऐ दोस्त! न तेरा मेरा मसीहा होता।

Tuesday, July 21, 2009

तुम कैसे हो?


आज सुबह -सुबह अपनी उनीदी आँखों में,
तेरा एक टूटा बिखरा सा ख्याब मिला,
तो बावरे मन ने सोचा - तुम कैसे हो?

मैं तो अपने दिल बात, ये अनसुलझे हालत,
कुछ बहकी बातें, कुछ न सम्हली आहें,
ग़ज़लों में, शेरो में, सच्ची-झूठी कह लेता हूँ...
कुछ सूखे रुखसार, रोने के आसार -
अपना लंबा इंतज़ार, हालातों की मार,
गीले सीले सफों में पुडियाकर बज्मो में रख देता हूँ...

पर प्रिय तुम, तुम तो जाने कहाँ गए?
एक न तामीर हुए रब्त के उस पार
थामे हाथों में यादों का चटका संसार
न जाने किन हवाओं में खो गए ...
न जाने किस रिश्ते के हो गए ....

कुछ भी तो नही अब कहते तुम,
न शिकवे और न कोई शिकायत,
न थमने उन किस्सों की आहट।
मेरे दोस्त कुछ तो बोलो कभी,
मुझसे न सही, ज़माने से ही सही।

कैसे सहते हो वक्त के रंज,
वो तिरछे तिरछे तंज
अपने हालत यूँ न छिपाओ,
तुम कैसे हो? कुछ तो बताओ।
यह मौन बड़ा घातक होता है।
इसे यूँ न आजमाओ,
तुम कैसे हो? कुछ तो बताओ।

Thursday, July 9, 2009

तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता

दोस्तों,
सामान्यत: मैं हर मंगलवार को अपनी कविता प्रकाशित करने का प्रयास करता हूँ किंतु इस बार अपवाद के रूप में जल्दी प्रकाशित कर रहा हूँ...आज की कविता मेरी प्रियतमा अर्धागिनी "डॉ सपना पाण्डेय" के लिए समर्पित हैं और उसी को संबोधित हैं। आज हमारे विवाह की नौवी वर्षगांठ हैं...वैसे तो मैं हिन्दी में विद्या वारिधि (पी.एच डी) अपनी पत्नी के आगे कभी भी अपनी कविता नहीं कहता क्योंकि वो या तो मुझसे बेहतर शब्दों में वही बात कह जाती हैं या ढेरो त्रुटियां निकाल देती हैं... किंतु आज इस आशा के साथ इन पंक्तियों के प्रकाशित कर रहा हूँ कि आज प्रिय सिर्फ़ भाव देखेगी शब्द-विन्यास नहीं....

सप्रेम
अप्रवासी

****************************************************

तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।
यह हँसता खिलखिलाता घर आँगन न होता ॥

आसान नहीं हैं एक पागल बंजारे को अपनाना।
सूनी पत्थराई आँखों में आशाओं के दीप जलाना।
खाली-खाली
बंजर चार दीवारों को घर समाझाना।
तुम न होते तो जीना इतना मनभावन न होता ।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।

तेरे बिन न कोई अर्थ मिला था इस जीवन को ।
कितने दिन औ' किनती रातें व्यर्थ जीया था जीवन को ।
तेरे सपनों के दर्पण ने एक नया रंग दिया हैं जीवन को ।
तुम न होते तो मुझको और जीने का मन न होता ।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।

तुझसे मिलने से पहले दावानल सी जलती थी सांसे ।
हर पग काँटों सी चुभती थीं मुझको सब राहें।
मलयानल सी प्रेम-अलख से ज्योतिर्मय लगती हैं रातें ।
तुम न होते तो चाहत का यह सावन न होता ।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।

तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।
यह हँसता खिलखिलाता घर आँगन न होता ॥

Tuesday, July 7, 2009

हा! कैसा छद्म जीवन ?


मुस्कानों के मुखोटे
अठठासों के लिबास
वस्तुतः रुदन -
हा! कैसा छद्म जीवन ?



विरल सुख, गहन दुःख
फ़िर भी शांत मुख,
नित्य अभिनय नूतन,
हा! कैसा छद्म जीवन ?



दृष्टिगोचर कलरव,
रश्मि का उत्सव,
पर सत्य, निशा-क्रंदन
हा! कैसा छद्म जीवन ?



रिश्तों की भीड़,
सह एकाकी पीर,
मुक्ति या बंधन
हा! कैसा छद्म जीवन ?



दायित्वों के बोझ,
इच्छाओं का रोष,
पर रुग्ण तन -
हा! कैसा छद्म जीवन ?



धर्म की सोच,
कर्म का बोध,
कहाँ मुक्त मन?
हा! कैसा छद्म जीवन ?



गतिमान तन,
आशावान मन,
सत्य मृत्यु या चेतन
हा! कैसा छद्म जीवन ?

Tuesday, June 30, 2009

मानव न बन पाओगे


स्मृतियों में सजग रहे स्वर्ग-नर्क की परिणति,
पाप-पुण्य से रंजित रहती मेरे कर्मो की गति ,
तेरे भी तो कर्मो का कोई लेखा-जोखा होगा -
रह-रहकर तुने भी तो अपने अन्यायों को जोड़ा होगा

चैन के नीद क्या तू सोता होगा दैव हमारे लिखकर
कष्टों के अम्बार लगाए तुने मानव जीवन पर
हमारी भाग्याख्या को तुने क्या फ़िर से वांचा होगा ?
अपनी त्रुटियों को क्या तुने फ़िर ख़ुद ही जांचा होगा ?

अपने लिखे भाग्य ख़ुद ही पर अजमा कर देखो।
पल भर मानव जीवन में तुम आकर देखो ...
प्रभु हो ! सब कुछ तुम कर जाओगे पर -
तुम पल भर भी मानव न रह पाओगे

Tuesday, June 23, 2009

मोक्षपान



झंझावातों के आँगन
तिनको के मकान ।
संघर्ष ही प्रधान या -
पलायन समाधान।
लक्ष्य को निर्वासन,
समर्पण के विकल्प ।
प्रयास सभी व्यर्थ,
क्या दीर्घ क्या अल्प ।
किसका हो आवाहन?
किसको दे हविस ?
किसका हो चरण वंदन ?
किसका लें आशीष ?
जीवन दिग्भ्रमित ,
मृत्यु रक्तरंजित...
कैसे हो मोक्षपान ?
पात्र सभी पतित ।

Tuesday, June 16, 2009

गुमनाम ही रहने दो, ज़िन्दगी के सफे


गुमनाम ही रहने दो, ज़िन्दगी के सफे।
कहीं फ़साने तारीख न बन जाएँ
माना मुझे आग से खेलने की आदत,
डर है कि कहीं दामन उसका न जल जाएँ

ज़ार-ज़ार हैं जिगर कुछ इस कदर अपना,
छूने से ही कहीं ज़र्रा-ज़र्रा न बिखर जाएँ
माना मुझे तुफानो को आजमाने की आदत,
डर है कि झोंका कोई उसतक न पहुँच जाएँ
गुमनाम ही ....

तंज़ के नश्तर भी मुबारक हैं मुझको,
ज़ख्म दर ज़ख्म हैं पाला मैंने उनको
माना मुझे नासूर रखने की ही आदत,
डर है कि शिस्त कहीं उसको न चुभ जाएँ
गुमनाम ही ...

क्या गम जो एक और नाम दे मुझको ज़माना,
उठे मेरे नाम पर फ़िर एक और फ़साना -
माना मुझे हर ज़ुबाँ पर रहने की हैं आदत,
डर है कि नाम कहीं उसका न निकल आए
गुमनाम ही ....

(१९९६ में रचित, अपनी एक पुरानी डायरी से)

Tuesday, June 9, 2009

कोई सवाल मेरे बारे में , ख़ुद से उठाते तो होगे


कभी तनहाई में जब तुम, आईने से बतियाते होगे,
कोई सवाल मेरे बारे में , ख़ुद से उठाते तो होगे

अपनी आँखों में जब पिछली कहानी दबाते होगे
कोई बूँद गालों पर गिरने से बचाते तो होगे
पढ़ी कितनी गज़लें बज्मो में मेरे गुमनाम दोस्त मैंने तेरे नाम की
कोई शेर उनमे से तुम अपना समझकर बीती बातों पर गुनगुनाते तो होगे



कई शब यारों ने छेड़ी महफिल में बातें हमारी तुम्हारी
कोई किस्सा उनका दोस्त अपने आकर तुमको भी सुनाते तो होंगे
कई किस्से नए-पुराने तुम्हे गुदगुदाते भी होंगे, रुलाते भी होंगे
कोई आह मेरे नाम की लेकर तुम सबसे घबराते तो होगे



मैंने सुना हैं कि तुम्हे न शिकवा मुझसे, मुझे न शिकायत तुझसे,
जो कह न सके हम, उस दिल्लगी को बताने को ख़त उठाते तो होंगे
वक्त ने खिंची जो दूरियां हम में, तुम ख्याबों उसे मिटाते तो होगे
कोई शाम, इस दुनिया की रिवायतों से दूर, मेरे आगोश में बिताते तो होंगे

कभी तनहाई में जब तुम, आईने से बतियाते होगे,
कोई सवाल मेरे बारे में , ख़ुद से उठाते तो होगे

Tuesday, June 2, 2009

संशय

एक दिन संध्या-बाती के बाद
अपने छत की मुंडेर पर बैठकर
किसी पुराने प्रेमी की तरह
अमावस के आकाश को निहारकर
दार्शनिक मन ने प्रश्न उछाला
सत्य क्या हैं - अँधेरा या उजाला?
मृत्यु
या जीवन? जड़ या चेतन ?

जब
ब्रम्हांड में चंहु-ओर व्याप्त हैं
तिमिर सघन, तमस सरल
सिर्फ़ ज्योति ही तो हैं विरल
अमाप्य दूरियों के सागर में,
जहाँ रश्मि भी है बूँद गागर में,
थक जाती हैं जहाँ रोशनी राहों में
बिखर जाती हैं हैं अंधेरे कि पनाहों में

सत्य
कैसे प्रकाश हो गया -
सर्वत्र व्याप्त अंधेरे का
कैसे विनाश साम्राज्य हो गया

मृत्यु भी एक अटल सत्य,
रूप चाहे हो जितना विभत्स्य।
निर्विकार सबको अपनाती हैं -
अनंत तक माँ सम गोद में उठाती हैं।
जिन्दगी का क्या?
प्रेयसी सा लम्हा दो लम्हा लुभाती हैं ,
एक प्यास और ललक से तडपती हैं ,
आँचल झटक , नज़रें पलट
न जाने कब चुपचाप निकल जाती हैं।

फ़िर क्यों उत्साहित नेत्रों से देखते हैं
सुबह के क्षणभंगुर प्रकाश को
रोशनी से भरे आकाश को
निमिष भर जीने की आस को
दो पल के जीने के प्रयास को

शायद
,
यह ही मानवपन हैं...
जिसका संघर्ष ही प्रण हैं ....
सत्य जानकर भागें क्यों?
बिना युद्घ के हम हारें क्यों ?
दो पल का जुझारूपन -
उससे क्या उत्तम जीवन
यूँ ही मिटते बढ़ जायेंगे
एक जीवन से
सौ जीवन कर जायेंगे
तिमिर बाँधता रहे ज्योति को ,
हम दीप नए जलाएंगे ।
मानव हैं - श्रम का पूजन कर
संघर्षगीत ही गायेंगे ।

Tuesday, May 26, 2009

आँखें थकती नहीं, राह थक जाती हैं...


आँखें थकती नहीं, राह थक जाती हैं...

तेरी पत्थराई नज़रों की
चुभन से घबराकर
चहलकदमी करती हैं,
तो कभी - सरपट
दौड़कर लौट आती हैं,
तेरी नज़रों की चुभन के बीच...

मुझको मालूम हैं वो राह
कभी चिलाकर कभी गुर्राकर,
या यूँ ही फुसफुसाकर
सन्नाटों की ओट में,
तेरी खामोशी से
दूर निकल जाना चाहती हैं
पर न जाने क्यों -
किसी हारे हुए सिपाही सी लौट आती हैं
तेरी नज़रों की चुभन के बीच...



बिखरे धुंधले अंधेरों और
आखिरी साँस तक जूझते चिरागों के बीच,
आती जाती रोशनी में,
फैलते सिमटते सायों को खीच
एक गुमशुदा अक्स की तलाश में
किसी मोड़ पर पा लेने की आस से
दौड़ भागकर, कुछ पल हांफ कर -
एक नाकाम टीस पालकर,
थक हारकर फ़िर लौट आती हैं ,
तेरी नज़रों की चुभन के बीच...



तेरी बर्फीली पत्थराई खामोश -
बेनूर आंखों की कहानी,
कितने जाने-अनजाने चेहरों और
देखें भूले राहगीरों की जुबानी,
सुनता आया था मैं, माँ !
पर आज मैं समझा माँ!
उस अंतहीन इंतज़ार का मर्म,
वात्सल्य और ममता का धर्म,
जब ख़ुद छोड़कर आया हूँ,
हॉस्टल के खाली कमरे में,
बच्चों को मैं माँ,
'कुछ' बन जाने को -
इस चाही अनचाही दौड़ में,
एक कदम सबसे आगे बढ़ जाने को ....
अब सूने घर की खाली चौखट से ,
इस आती-जाती राह को,
देखता हूँ और सोचता हूँ -
आँखें थकती नहीं, राह थक जाती हैं...

Tuesday, May 19, 2009

तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं


जब प्रिय! तुम मिलते हो तो अच्छा लगता हैं,
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।
पिछले सावन की बरसातें हम जिनसे बच कर भागे थे
उनकी कोरी बूंदों को गालों पर रखने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

जिन
खाली काली लम्बी रातों में घंटों ख़ुद से बतियातें थे ,
उनके आगोश में लिपटकर तेरी राहें तकने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

कितने ख्याबों की तामीर रहे तुम औ' कितनों में तुम आते थे,
उस एक तमन्ना से घबरा कर अब जागते रहने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

बीते सारे लम्हे, जिन पर फुर्सत में तुने मेरे नाम लिखे थे,
यूँ ही उन सब को मुठ्ठी में थामे रखने को मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

बहुत भुलाया किस्सा यह, बहुत छिपाया रिश्ता यह,
अब दो पल तुझको सबसे अपना कहने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

Tuesday, May 12, 2009

एक कहानी अनकही

आज फ़िर एक बीते लम्हे ने
पुकारा मुझे, तेरा नाम लेकर।
टटोला गया फ़िर से वो रिश्ता,
जो रह गया था गुमनाम होकर
चुपचाप निकल आई थी आगे
यह बदनाम ज़िन्दगी मेरी
छोड़कर उजियारे दिन तेरे
लेकर अपनी रातें घनेरी
स्याह रात की इस चादर में,
ना थी कभी कोई उम्मीद मुझे।
सहलायेगा इस कदर -
मेरा बेचैन साया उठकर मुझे।
एक हसरत जो मैं समझा था कि
दफन आया हूँ तेरे दर पर कहीं।
रूह से लिपटकर साथ चली आयी हैं,
अब सुनाती हैं रोज एक कहानी अनकही।

Tuesday, May 5, 2009

आओ एक कविता का सृजन करें


जीवन की विषमताओ ने खींची
हांथों में जो आडी-तिरछी रेखाएँ हैं,
उनमे, आओ, कुछ उमंग के रंग भरें,
आओ, एक कविता का सृजन करें।

सूनी-सूनी आँखों में छुपकर बैठा हैं,
एक उदास बड़ा, बूढा धूमल अंधड़,
उसकी तृप्ति को, आओ, सावन की एक बूँद बने,
आओ, एक कविता का सृजन करें

पत्थरीले प्रगतिपथ पर पड़ा यहाँ तिमिर सघन
हताशा का दामन थामे थककर खड़े वहां कदम कई
उनके हारे बिखरे पग में, आओ, अन्तिम दीपशिखा से जलें
आओ, एक कविता का सृजन करें

आशाओं से च्युत हो गिरते हो जहाँ मन विकल,
लक्ष्य विहीन होकर मार्ग निरखते हों नयन विह्वल
उनके आहात तन को सहलाने को, आओ, मृदुल स्पर्श बने
आओ, एक कविता का सृजन करें

Wednesday, April 29, 2009

मेरा ख्याल तो आया


देख तेरी बेपरवाह दिल्लगी ने,
मुझको किस कदर तमाशा बनाया।
खैर अच्छा हुआ क्योंकि -
तमाशा देखते हैं ज़माने वाले
इसी बहाने, उन्हें मेरा ख्याल तो आया।

किसी हाशिये पर अनजान ही
कट जाती जिंदगी तन्हा मेरी,
चलो, अब सबकी जुबान पर
तेरे नाम के साथ मेरा नाम तो आया।
इसी बहाने, उन्हें मेरा ख्याल तो आया।

दो तंज ही सही, यह रंग ही सही
अब मुझसे मुखतिब हैं ज़मानेवाले
आज जिंदा हूँ पर कल मिलही जायेंगे
मेरे नाम पर गज़ले गाने वाले।
तेरी बेरुखी ने सच, एक फ़साना तो बनाया
इसी बहाने, उन्हें मेरा ख्याल तो आया।

Wednesday, April 22, 2009

तुझे चाहकर भुला न पाया, ये खता मेरी



तुझे चाहना, थी भूल मेरी, मेरे हमदम,
तुझे चाहकर भुला न पाया, ये खता मेरी।

अबतक तलाशता हूँ गुमनाम भीड़ में,
तेरा चेहरा इस उम्मीद के साथ।
मिल ही जाए शायद तू मुझे -
किसी मोड़ पर किसी रकीब के साथ।

गर तू मिलकर भी न देखे मेरी ओर,
कोई अफ़सोस न होगा मुझे।
कोई सबब तो मेरे इश्क का ही होगा
जो अब तक रोकता होगा तुझे।


जब फासले हमारे दिलों में हो तो,
जिस्म की दूरियों का क्या गम?
खेल-ऐ-आरजू में कत्ल-ऐ-दिल हकीकत,
दोस्त, कभी हम
तो कभी तुम।

तुझे चाहना न थी, भूल मेरी, मेरे हमदम,
तुझे चाहकर भुला न पाया, ये खता मेरी।
तुझे चाहकर भुला न पाया, ये सज़ा मेरी।

Monday, April 6, 2009

निःशब्द प्रेम प्रतिज्ञा





सीले सिरहाने पर रख छोड़ा हैं ,
एक तेरा स्वप्न अधूरा गीला सा
तुम हो जिसमे मैं हूँ और
वो वर्षों का एकाकीपन हैं
तेरी लाज के आँचल पर,
अब तक ठिठका मेरा मन हैं।



सिमटे सकुचे तुम बैठे थे जैसे ,
उस पहली अपनी मुलाकात में ।
अब भी वैसे ही मिलते हो मुझको,
हर भीगी सीली श्यामल रात में ।


अपनी मृग-चंचल आँखों में
एक मदहोश शरारत से -
निःशब्द ही कह जाते हो ,
चिर-पुरातन अपनी प्रेम-प्रतिज्ञा ,


जिसके बंधन में ही ,
मेरी मुक्ति का सार छिपा हैं।
जिसकी परिधि में ही
मेरा सारा संसार बसा हैं।


अपनी आहो से छूता हूँ ,
हर दिन तेरी कोमल श्वासों को ।
अपनी तृष्णा की तृप्ति को
पीता हूँ तेरी प्यास के प्यालों को ।


स्वप्न रहे थे तुम,
स्वपनों में ही पाता हूँ ।
अपनी निःशब्द प्रेम प्रतिज्ञा को
ऐसे ही हर शाम निभाता हूँ।

Monday, March 30, 2009

क्या थे वो तेरे हर्फ़ अनकहे


कितने भीगे मौसम की चुप्पी लपेटे,
वो बेकरार सवाल अब भी रूठा बैठा हैं
क्या इश्क तुझे भी था मुझसे या
वो मेरी आँखों का ही एक धोखा था

जिस पल मैंने तुझको थामा था
तुने क्या कहने से खुदको रोका था
उदू का डर था या रुसवाई का या -
एक इशारा था आने वाली तनहाई का

मेरे सीने पर सर रखकर छूटी
तेरी आधी अधूरी सी सिसकी
क्या बतलाती थी मुझको उस पल,
तू अब न मुझसे मिलने आएगी
चंद शबों में तू भी गैरों सी हो जायेगी

तू तो चली गयी कह कर
वो उलझे उलझे हर्फ़ अनकहे
पर उस रात को मैं अब भी
हर पल जीया करता हूँ,
ख़ुद से ही पूंछा करता हूँ
क्या थे वो तेरे हर्फ़ अनकहे

Sunday, March 22, 2009

मैं शिव क्यों नहीं हो पाता?


रोज रोज-
काल-मंथन से उपजा
सांसो का हलाहल
मैं पीता जाता
फ़िर यह संशय
मुझको खाता
मैं शिव
क्यों नही हो पाता?


अपने अंतर में
खंडित यह बोध लिए
पाप-पुण्य से रंजित
एक सोच लिए
अपनी दुविधा से
जन्मे दर्शन में
करता मीमांसा,
जहाँ जन्मा प्रश्न,
उसी गर्भ से -
उत्तर की आकांक्षा।


अपने तर्क-वितर्क उलझते
एक दुसरे के विरुद्ध
नित्य ही करते
जिज्ञासा मार्ग अवरुद्ध ।
पर इन सबसे इतर,
एक चिंतन नश्वर,
उकेरता मन में,
उत्तर के अक्षर ।



संभवतः मैं
जीवन की विषमताओ पर,
तांडव न कर पाता हूँ,
काम के मोहक आघातों पर,
क्रोधित न हो पाता हूँ।
इच्छाओ की मृग-तृष्णा में,
स्वं स्थिर न रह पाता हूँ
हलाहल पीकर भी -
जीवन को ललचाता हूँ।
संभवतः इस कारण मैं
शिव न हो पाता हूँ।


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