प्यारे पथिक
Tuesday, December 29, 2009
'एक्सक्लूसिव' खबर
Tuesday, December 22, 2009
रात भर....
काश मुझको मालूम न होता ठिकाना तेरा
चर्चा रात भर, चलता रहा महफ़िल में मेरा,
Tuesday, December 15, 2009
माँगा खुदा से अब न हो रहबर ज़माना मेरा
अपनी अपनी दूकान पर यहाँ सबके अपने रसूल,
झूठ की सियासत में, हमेशा सच बदलते लोग
Tuesday, December 8, 2009
हुआ इश्क में रुस्वां, इक नई पहचान ढूंढता हूँ
Tuesday, December 1, 2009
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
अपनों को परखने की,
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
माँगा ही किया है दुनिया ने हरदम,
मुझसे कीमत हर रिश्ते नातों की
आज देती हैं वो धोखा तो दे लेने दो.
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
बचता बगावत के इल्जामों से,
अब कटता सर मेरा, तो कट लेने दो.
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
गैर-ज़रूरी है अब दुनियादारी में
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
बड़ी मुद्दत के बाद आज तन्हा हूँ,
आंसू न पोछो, मुझे धीर न दो
मैं रोता हूँ, तो रो लेने दो !!
Tuesday, November 24, 2009
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!
जीकेडी: गुप्ता का ढाबा. लखनऊ आई.ई. टी (इन्जिनेरिंग कॉलेज) के साथ में चलने वाला ढाबा. हमारे छात्र-जीवन में सारे के सारे ढाबों का विलायतीकरण उनके नामों के संक्षिप्त करके ही किया गया था जैसे मिश्रा का ढाबा यमकेडी, गुप्ता का ढाबा जीकेडी. इस ढाबों ने जितने सपनों को बनते बिगड़ते देखा हैं शायद ही आस-पास को कोई ईलाका उसकी बराबरी कर पाए - चाहे वो नौकरी या छोकरी के सपने हो या पनपती छात्र-राजनीति की महत्वाकांक्षाएं.
टोपिंग: प्रोजेक्ट या असाइनमेंट की नक़ल (टोपने अथवा टीपने) की कला; जो अक्सर एक घिस्सू छात्र के समाधान निकालने के बाद अक्सर स्वयं या जूनियर्स द्वारा कक्षा के अन्य उन्मुक्क्त विचारों वाले छात्रों के लिए प्रतिलिपि बनाने की कला के लिए प्रयुक्त होता है.
- गंजिंग = लखनऊ के प्रगतिशील हजरतगंज के इलाके में जीवन के फलसफे और रंगीनियों को तलाशते हुए हम जैसे फक्कडों का घूमना
Tuesday, November 17, 2009
सम्पाति-प्रलाप
आज बैठा हूँ मैं सम्पाति विवश निराश,
वे अबाध्य अजेय ओजस्वी अरमान तुम्हारे
(किष्किन्धाकांड; रामचरित मानस)
Tuesday, November 10, 2009
सुना है उनकी तस्वीर ईनाम पाने को है
Tuesday, November 3, 2009
काश! हम भी एक मौसमी दरख्त हो पाते
पाकर एक अनुभूति अपने अंतर्मन में
Tuesday, October 27, 2009
तेरी रुसवाई से, मेरी बेवफाई का इल्जाम अच्छा है
Tuesday, October 20, 2009
दिल टूटने से, और बढ़ गई दिलों की दूरियाँ
Saturday, October 17, 2009
जितना संभव हो पथ आलोकित करें (दीवाली शुभकामनाएँ)
जितना संभव हो पथ आलोकित करें !!
Tuesday, October 13, 2009
साँसों में लिपटी पड़ी है मिट्टी, लोग उठाते क्यों नहीं.
Tuesday, October 6, 2009
दीप-पीड़ा
मांगता हैं कोई, मौन ही
Tuesday, September 29, 2009
...कोई तो मेरा किस्सा पुराना मिले
हर नज़्म नाम उनके औ' वो कहते हैं कोई तो मेरे यार का इशारा मिले
कभी तो समझे वो इन ज़ज्बातों को तो सबको एक फ़साना मिले
मेरी आँखों में झाँककर सँवारना ख़ुद को , तब भी तुझको वो चेहरा सुहाना मिले
ढलती उम्र में देखना उस चौखट को, शायद हम सा ही कोई दीवाना मिले
देखना कोई जाकर दोस्तों कहीं वो ही खंजर न पुराना मिले
कुछ तो 'दास्ताँ' उनसे खुलकर मिलने का बहाना मिले
Tuesday, September 22, 2009
क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?
क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?
न पाषाण हूँ, न मैं कोई बुद्ध,
न मुझे कामना की प्यास ,
नहीं दहकता सूत भर ह्रदय
आज स्वयं के भी मान-मर्दन पर
बौधिक हो रही है काव्य-रचना,
रंगा-पुता हैं हर शब्द पर,
सजे हुए हर्फ बेतरकीब कई ,
Tuesday, September 15, 2009
क्या गिला करें हम अपने मासूम यार का...
क्या गिला करें हम अपने मासूम यार का।
किस किस से छिपायें नाम नादाँ यार का।
जिनके लिए बदनाम हुए, वो किस्से हमारे आम करे जाते हैं
कोई तो सिखाओ यारों उन्हें सलीका इश्क के इज़हार का ।
जिस पर भरोसा किया, उन्होंने ही तमाशा बनाया प्यार का
उम्र हुई न जाने कब आयेगा अब ये मौसम ऐतबार का ।
बहुत बेंचे हैं ख्याब उन्होंने, पल भर के खुलूस की खातिर
कौन जाने वो कब बंद करेंगे धंधा दिलों के कारोबार का ।
निगाहे यार नश्तर है और हुस्न औ'अदा खंजर उनके ,
हँसकर सहते हैं जुल्म, क्या शिकवा करें उनके वार का ।
लगकर मेरे सीने से कहते हैं वो उन्हें इश्क नहीं मुझसे ,
या खुदा क्या जालिम हैं ये अंदाज़ उनके इकरार का ।
रकीबों के इस शहर में सबकी हैं हर किसी से अदावत
कौन सुनेगा 'दास्ताँ' तेरा ये किस्सा पुराना प्यार का ।
Tuesday, September 8, 2009
तुझे मुझसे प्यार न करना हैं, तो न कर
फ़िर नज़रें भी न मिला, यूँ बेकरार भी न कर।
न देख इन मस्त निगाहों से मुझे ,
न हिला, रह रह कर गेसुओं की चिलमन।
दिलफेक नहीं पर आशिक मिजाज है दिल ,
रह-रह कर जुल्फ-ऐ-यार से उलझता है मन।
न छोड़, ठण्डी ठण्डी आहें छिप-छिपकर,
न मुस्कुरा, रह रहकर इन मासूम अदाओं से।
बेपरवाह नहीं, पर कुछ मदहोश है दिल,
रह रहकर बहकता है, हुस्न-ऐ-यार की सदाओं पे।
न थरथरा, रह रहकर होठों से इन हर्फ़ बेमायनों को।
प्यासा नहीं पर, कबका मुन्तज़िर है दिल
रह रहकर मचलता है लब-ऐ-यार के पैमानों को।
फ़िर नज़रें भी न मिला, यूँ बेकरार भी न कर।
Tuesday, September 1, 2009
...और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी
तपती दुपहरी की धुप में साथ निभाने को अपने साये नहीं होते।
भरी भीड़ की भगदड़ में गिरनेवालों को उठानेवाले भी नहीं होते ।
सबका गम बाँटता आया हूँ उम्र-भर , तो फिर आज शिकवा क्यों
यह गम ही तो हैं जिंदगी भर की कमाई मेरी ....
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...
बेरुखी को मसरूफियत, बेफिक्री को जिन्दादिली समझते हैं दुनियावाले ।
अपने ही टूटे चश्मे से सबका चेहरा देखते - समझते हैं दुनियावाले।
अपनी ही सूरत बदलता आया हूँ उम्र-भर, तो फ़िर आज गुरेज क्यों
एक नकाब की चिलमन ही तो हैं पहचान मेरी ...
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...
सबके अपने पैमाने, अपनी ही कसौटी पर परखते हैं सबको लोग,
रिश्ते खो देते हैं पर उन बीते रिश्तों के दर्द पकड़ते हैं बरसों लोग,
खोता आया हूँ रिश्तों को उम्र-भर, तो फ़िर ये गिला क्यों
एक अनजानी भीड़ में खोकर रह गई कहानी मेरी ...
और किस मुकाम पर रूकती जिंदगी मेरी...
Tuesday, August 25, 2009
एक निर्वस्त्र दर्द
एक जागती रात के सिरहाने बैठकर,
आकाश की काली आँखों में झांककर,
मैंने अपना एक निर्वस्त्र दर्द उठाया
झूठे सपनो के तार-तार से कपड़े पहनाये
जो बचा, उसे दुनियादारी के -
फटेहाल पैबन्दों से छिपाया
न चेहरा देखा, न रूह नापी
सिर्फ़ एक एहसास पर कि
एक दिन मेरे दायरों से निकल कर
कहीं एक ग़ज़ल की खुली साँस लेगा ,
उसे दफ़न कर दिया ,
डायरी के मटमैले पन्नो पर ...
Tuesday, August 18, 2009
निचोड़ लो मुष्ठियों में सोमरस...
निचोड़ लो मुष्ठियों में सोमरस॥
तुमने मदन मंदिरों के पट पर।
आज राष्ट्र-देवी मांगतीं हैं तुझसे,
चिता-भस्म निमिष श्वास भर ॥
दिग्भ्रमित तुमने साँझ कई।
रुधिर-श्रृंगार से करो सज्जित माँ को,
बता दो सपूतों से वो बाँझ नही॥
स्वार्थ-कामना से हर घट लिप्त हो।
मातृ-भवन हो आलोकित तब
बलिदानी पूत हृदय प्रज्वलित हो ॥
बैठे हैं रिपु अदृश्य असंख्य सर्वत्र ।
युगों से धमनियों में फड़क रहा जो
उन्मुक्त करो वो विहंगम रक्त ॥
कम्पित को शत्रु-ह्रदय देखकर रूप रौद्र ।
हविस हो अहम् सबके राष्ट्र-यज्ञ में ,
निखर आए संघर्ष-धनी भारत गोत्र ॥
तोड़ दो निर्लज्य, धृष्ट अक्षम्य उद्दंड हस्त ।
विध्वंस हो बैरस्त भावग्रस्त जीव समस्त ,
खुले हो हर प्रहार को कवच बन हमारे उन्मुक्त वक्ष ॥
शान्तिप्रियता न हमारी हीनता कल्प हो ।
बतादो विश्व को हम नहीं बिसराया हुआ गीत हैं,
शांतिदूतों की पुरातन जीत की ही रीति हैं॥
चाँद क्या सूरज की तपिस भी क्षम्य नहीं।
भर हुंकार उचक कर व्योम तक,
निचोड़ लो मुष्ठियों में सोमरस॥
Tuesday, August 11, 2009
तेरे बिना एक और दिन, एक और लम्हा
यादों के सिवा कुछ और नहीं, बस तन्हा-तन्हा।
यादों के दो हर्फ़ लिए, आयत सा मैं पढता जाता,
तेरे ही नाम के नुक्ते में,जीवन का हर अर्श मैं पाता
हर पल महसूस किया हैं तुझको अपनी हर बीती धड़कन में,
तेरी यादों के आँचल में ढांपा हैं ख़ुद को जीवन की हर सिहरन में,
तू मुझसे कुछ दूर सही, पर एक रिश्ता तो अब भी मुझसे बांधे हैं तुझको
रोते हम भी सबसे छुप-छुपकर पर तेरी यादों का जज्बा थामे हैं मुझको,
और कहूं क्या तुझसे मैं, अपने टूटे तन्हा दिल का हाल प्रिय,
इन यादों में तुम हो सो जन्नत हैं बाकी सब तो दोज़ख हाल प्रिय,
तेरे जाने का कोई गम मुझको नही -तेरी यादें जो अब आती हैं,
यह तो बस फ़िर मिलने की चाहत हैं जो अब तक तडपाती हैं।
मेरे होने न होने का इतना ही सबब होगा शायद मेरे हमदम !
तू मेरी यादों में हैं अब, मैं तेरी यादों में होऊंगा तब हरदम !
Tuesday, August 4, 2009
मेरे टूटे रिश्ते का हिस्सा होगा शायद!!
आँखों के करीने में कुछ तो चुभता हैं
मेरे टूटे रिश्ते का हिस्सा होगा शायद!!
एक उम्र हुई, जब वक्त के धुंधले में,
अनजाने में दुनियादारी की ठोकर से,
तेरे मेरे ख्याबों पर पाँव पड़ा था मेरा।
मेरे मजबूर हाथों से फिसला था
एक संग चलता संग-सा रिश्ता
पर बिखरा बेआवाज़ वो कांच-सा रिश्ता !!
और मैं बेखबर न तब समझ पाया था -
कि बंद मुठ्ठियों से मैं क्या खो आया था.
कितनी बार मैंने रिश्तों के बही-खाते,
ज़ज्बातों और समझोतों में बाँटे-छांटे।
पर वो बिखरा रिश्ता कहीं न सिमट पाया,
हर बार एक तेरा ही रिश्ता घट आया ।
अब वो हाथों से छूटा बिखरा-बिखरा रिश्ता
अक्सर इन तन्हा आँखों में मिल जाता हैं -
हुई मुद्दत पर अब भी चुभ जाता हैं -
आज भी ऐसा ही कोई किस्सा होगा शायद
आँखों के करीने में कुछ तो चुभता हैं
मेरे टूटे रिश्ते का हिस्सा होगा शायद!!
Tuesday, July 28, 2009
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता
मैंने तो सुना था कि दर्द है बड़ा खुदगर्ज होता,
हर कोई सिर्फ़ अपनी ही किसी बात पर है रोता।
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना मेरे हालत पर, ऐ दोस्त! तेरा चेहरा न भीगा होता ।
तेरी झील सी गहरी आँखों में बसा समुंदर न होता,
यूँ बिना किसी आवाज़, बेबात यह निर्झर न बहता,
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना मेरे जज्बातों पर, ऐ दोस्त! तेरा दिल न पशेमाँ होता ।
पहचाने चेहरों की भीड़ में कोई अपना पाने का सलीका होता,
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना मेरे गम पर, ऐ दोस्त! तेरा न सिसकना होता।
हर किसी की कहनेवाले को न है कोई सुननेवाला होता,
हंसकर मिलनेवालों का है अक्सर भीगा तकिया होता,
तुझसे मिलकर जाना, दर्द का रिश्ता है साँझा होता,
वरना सबके के लिए मरने वाला, ऐ दोस्त! न तेरा मेरा मसीहा होता।
Tuesday, July 21, 2009
तुम कैसे हो?
आज सुबह -सुबह अपनी उनीदी आँखों में,
तेरा एक टूटा बिखरा सा ख्याब मिला,
तो बावरे मन ने सोचा - तुम कैसे हो?
मैं तो अपने दिल बात, ये अनसुलझे हालत,
कुछ बहकी बातें, कुछ न सम्हली आहें,
ग़ज़लों में, शेरो में, सच्ची-झूठी कह लेता हूँ...
कुछ सूखे रुखसार, रोने के आसार -
अपना लंबा इंतज़ार, हालातों की मार,
गीले सीले सफों में पुडियाकर बज्मो में रख देता हूँ...
पर प्रिय तुम, तुम तो जाने कहाँ गए?
एक न तामीर हुए रब्त के उस पार
थामे हाथों में यादों का चटका संसार
न जाने किन हवाओं में खो गए ...
न जाने किस रिश्ते के हो गए ....
कुछ भी तो नही अब कहते तुम,
न शिकवे और न कोई शिकायत,
न थमने उन किस्सों की आहट।
मेरे दोस्त कुछ तो बोलो कभी,
मुझसे न सही, ज़माने से ही सही।
कैसे सहते हो वक्त के रंज,
वो तिरछे तिरछे तंज
अपने हालत यूँ न छिपाओ,
तुम कैसे हो? कुछ तो बताओ।
यह मौन बड़ा घातक होता है।
इसे यूँ न आजमाओ,
तुम कैसे हो? कुछ तो बताओ।
Thursday, July 9, 2009
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता
सामान्यत: मैं हर मंगलवार को अपनी कविता प्रकाशित करने का प्रयास करता हूँ किंतु इस बार अपवाद के रूप में जल्दी प्रकाशित कर रहा हूँ...आज की कविता मेरी प्रियतमा अर्धागिनी "डॉ सपना पाण्डेय" के लिए समर्पित हैं और उसी को संबोधित हैं। आज हमारे विवाह की नौवी वर्षगांठ हैं...वैसे तो मैं हिन्दी में विद्या वारिधि (पी.एच डी) अपनी पत्नी के आगे कभी भी अपनी कविता नहीं कहता क्योंकि वो या तो मुझसे बेहतर शब्दों में वही बात कह जाती हैं या ढेरो त्रुटियां निकाल देती हैं... किंतु आज इस आशा के साथ इन पंक्तियों के प्रकाशित कर रहा हूँ कि आज प्रिय सिर्फ़ भाव देखेगी शब्द-विन्यास नहीं....
सप्रेम
अप्रवासी
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तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।
यह हँसता खिलखिलाता घर आँगन न होता ॥
आसान नहीं हैं एक पागल बंजारे को अपनाना।
सूनी पत्थराई आँखों में आशाओं के दीप जलाना।
खाली-खाली बंजर चार दीवारों को घर समाझाना।
तुम न होते तो जीना इतना मनभावन न होता ।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।
तेरे बिन न कोई अर्थ मिला था इस जीवन को ।
कितने दिन औ' किनती रातें व्यर्थ जीया था जीवन को ।
तेरे सपनों के दर्पण ने एक नया रंग दिया हैं जीवन को ।
तुम न होते तो मुझको और जीने का मन न होता ।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।
तुझसे मिलने से पहले दावानल सी जलती थी सांसे ।
हर पग काँटों सी चुभती थीं मुझको सब राहें।
मलयानल सी प्रेम-अलख से ज्योतिर्मय लगती हैं रातें ।
तुम न होते तो चाहत का यह सावन न होता ।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।
तुम न होते तो जीवन इतना पावन न होता।
यह हँसता खिलखिलाता घर आँगन न होता ॥
Tuesday, July 7, 2009
हा! कैसा छद्म जीवन ?
मुस्कानों के मुखोटे
अठठासों के लिबास
वस्तुतः रुदन -
हा! कैसा छद्म जीवन ?
विरल सुख, गहन दुःख
फ़िर भी शांत मुख,
नित्य अभिनय नूतन,
हा! कैसा छद्म जीवन ?
दृष्टिगोचर कलरव,
रश्मि का उत्सव,
पर सत्य, निशा-क्रंदन
हा! कैसा छद्म जीवन ?
रिश्तों की भीड़,
सह एकाकी पीर,
मुक्ति या बंधन
हा! कैसा छद्म जीवन ?
दायित्वों के बोझ,
इच्छाओं का रोष,
पर रुग्ण तन -
हा! कैसा छद्म जीवन ?
धर्म की सोच,
कर्म का बोध,
कहाँ मुक्त मन?
हा! कैसा छद्म जीवन ?
गतिमान तन,
आशावान मन,
सत्य मृत्यु या चेतन
हा! कैसा छद्म जीवन ?
Tuesday, June 30, 2009
मानव न बन पाओगे
स्मृतियों में सजग रहे स्वर्ग-नर्क की परिणति,
पाप-पुण्य से रंजित रहती मेरे कर्मो की गति ,
तेरे भी तो कर्मो का कोई लेखा-जोखा होगा -
रह-रहकर तुने भी तो अपने अन्यायों को जोड़ा होगा
चैन के नीद क्या तू सोता होगा दैव हमारे लिखकर
कष्टों के अम्बार लगाए तुने मानव जीवन पर
हमारी भाग्याख्या को तुने क्या फ़िर से वांचा होगा ?
अपनी त्रुटियों को क्या तुने फ़िर ख़ुद ही जांचा होगा ?
अपने लिखे भाग्य ख़ुद ही पर अजमा कर देखो।
पल भर मानव जीवन में तुम आकर देखो ...
प्रभु हो ! सब कुछ तुम कर जाओगे पर -
तुम पल भर भी मानव न रह पाओगे
Tuesday, June 23, 2009
Tuesday, June 16, 2009
गुमनाम ही रहने दो, ज़िन्दगी के सफे
गुमनाम ही रहने दो, ज़िन्दगी के सफे।
कहीं फ़साने तारीख न बन जाएँ
माना मुझे आग से खेलने की आदत,
डर है कि कहीं दामन उसका न जल जाएँ
ज़ार-ज़ार हैं जिगर कुछ इस कदर अपना,
छूने से ही कहीं ज़र्रा-ज़र्रा न बिखर जाएँ
माना मुझे तुफानो को आजमाने की आदत,
डर है कि झोंका कोई उसतक न पहुँच जाएँ
गुमनाम ही ....
तंज़ के नश्तर भी मुबारक हैं मुझको,
ज़ख्म दर ज़ख्म हैं पाला मैंने उनको
माना मुझे नासूर रखने की ही आदत,
डर है कि शिस्त कहीं उसको न चुभ जाएँ
गुमनाम ही ...
क्या गम जो एक और नाम दे मुझको ज़माना,
उठे मेरे नाम पर फ़िर एक और फ़साना -
माना मुझे हर ज़ुबाँ पर रहने की हैं आदत,
डर है कि नाम कहीं उसका न निकल आए
गुमनाम ही ....
(१९९६ में रचित, अपनी एक पुरानी डायरी से)
Tuesday, June 9, 2009
कोई सवाल मेरे बारे में , ख़ुद से उठाते तो होगे
कोई सवाल मेरे बारे में , ख़ुद से उठाते तो होगे
अपनी आँखों में जब पिछली कहानी दबाते होगे
कोई बूँद गालों पर गिरने से बचाते तो होगे
पढ़ी कितनी गज़लें बज्मो में मेरे गुमनाम दोस्त मैंने तेरे नाम की
कोई शेर उनमे से तुम अपना समझकर बीती बातों पर गुनगुनाते तो होगे
कई शब यारों ने छेड़ी महफिल में बातें हमारी तुम्हारी
कोई किस्सा उनका दोस्त अपने आकर तुमको भी सुनाते तो होंगे
कई किस्से नए-पुराने तुम्हे गुदगुदाते भी होंगे, रुलाते भी होंगे
कोई आह मेरे नाम की लेकर तुम सबसे घबराते तो होगे
मैंने सुना हैं कि तुम्हे न शिकवा मुझसे, मुझे न शिकायत तुझसे,
जो कह न सके हम, उस दिल्लगी को बताने को ख़त उठाते तो होंगे
वक्त ने खिंची जो दूरियां हम में, तुम ख्याबों उसे मिटाते तो होगे
कोई शाम, इस दुनिया की रिवायतों से दूर, मेरे आगोश में बिताते तो होंगे
कोई सवाल मेरे बारे में , ख़ुद से उठाते तो होगे
Tuesday, June 2, 2009
संशय
अमावस के आकाश को निहारकर
दार्शनिक मन ने प्रश्न उछाला
सत्य क्या हैं - अँधेरा या उजाला?
मृत्यु या जीवन? जड़ या चेतन ?
जब ब्रम्हांड में चंहु-ओर व्याप्त हैं
सिर्फ़ ज्योति ही तो हैं विरल
अमाप्य दूरियों के सागर में,
जहाँ रश्मि भी है बूँद गागर में,
थक जाती हैं जहाँ रोशनी राहों में
बिखर जाती हैं हैं अंधेरे कि पनाहों में
सत्य कैसे प्रकाश हो गया -
सर्वत्र व्याप्त अंधेरे का
कैसे विनाश साम्राज्य हो गया
प्रेयसी सा लम्हा दो लम्हा लुभाती हैं ,
सुबह के क्षणभंगुर प्रकाश को
रोशनी से भरे आकाश को
निमिष भर जीने की आस को
दो पल के जीने के प्रयास को
शायद, यह ही मानवपन हैं...
एक जीवन से
Tuesday, May 26, 2009
आँखें थकती नहीं, राह थक जाती हैं...
आँखें थकती नहीं, राह थक जाती हैं...
तेरी पत्थराई नज़रों की
चुभन से घबराकर
चहलकदमी करती हैं,
तो कभी - सरपट
दौड़कर लौट आती हैं,
तेरी नज़रों की चुभन के बीच...
मुझको मालूम हैं वो राह
कभी चिलाकर कभी गुर्राकर,
या यूँ ही फुसफुसाकर
सन्नाटों की ओट में,
तेरी खामोशी से
दूर निकल जाना चाहती हैं
पर न जाने क्यों -
किसी हारे हुए सिपाही सी लौट आती हैं
तेरी नज़रों की चुभन के बीच...
बिखरे धुंधले अंधेरों और
आखिरी साँस तक जूझते चिरागों के बीच,
आती जाती रोशनी में,
फैलते सिमटते सायों को खीच
एक गुमशुदा अक्स की तलाश में
किसी मोड़ पर पा लेने की आस से
दौड़ भागकर, कुछ पल हांफ कर -
एक नाकाम टीस पालकर,
थक हारकर फ़िर लौट आती हैं ,
तेरी नज़रों की चुभन के बीच...
तेरी बर्फीली पत्थराई खामोश -
बेनूर आंखों की कहानी,
कितने जाने-अनजाने चेहरों और
देखें भूले राहगीरों की जुबानी,
सुनता आया था मैं, माँ !
पर आज मैं समझा माँ!
उस अंतहीन इंतज़ार का मर्म,
वात्सल्य और ममता का धर्म,
जब ख़ुद छोड़कर आया हूँ,
हॉस्टल के खाली कमरे में,
बच्चों को मैं माँ,
'कुछ' बन जाने को -
इस चाही अनचाही दौड़ में,
एक कदम सबसे आगे बढ़ जाने को ....
अब सूने घर की खाली चौखट से ,
इस आती-जाती राह को,
देखता हूँ और सोचता हूँ -
आँखें थकती नहीं, राह थक जाती हैं...
Tuesday, May 19, 2009
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।
उनकी कोरी बूंदों को गालों पर रखने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।
जिन खाली काली लम्बी रातों में घंटों ख़ुद से बतियातें थे ,
उनके आगोश में लिपटकर तेरी राहें तकने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।
उस एक तमन्ना से घबरा कर अब जागते रहने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।
यूँ ही उन सब को मुठ्ठी में थामे रखने को मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।
अब दो पल तुझको सबसे अपना कहने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।
Tuesday, May 12, 2009
एक कहानी अनकही
पुकारा मुझे, तेरा नाम लेकर।
टटोला गया फ़िर से वो रिश्ता,
जो रह गया था गुमनाम होकर।
चुपचाप निकल आई थी आगे
यह बदनाम ज़िन्दगी मेरी
छोड़कर उजियारे दिन तेरे
लेकर अपनी रातें घनेरी ।
स्याह रात की इस चादर में,
ना थी कभी कोई उम्मीद मुझे।
सहलायेगा इस कदर -
मेरा बेचैन साया उठकर मुझे।
एक हसरत जो मैं समझा था कि
दफन आया हूँ तेरे दर पर कहीं।
रूह से लिपटकर साथ चली आयी हैं,
अब सुनाती हैं रोज एक कहानी अनकही।
Tuesday, May 5, 2009
आओ एक कविता का सृजन करें
हांथों में जो आडी-तिरछी रेखाएँ हैं,
उनमे, आओ, कुछ उमंग के रंग भरें,
आओ, एक कविता का सृजन करें।
सूनी-सूनी आँखों में छुपकर बैठा हैं,
एक उदास बड़ा, बूढा धूमल अंधड़,
उसकी तृप्ति को, आओ, सावन की एक बूँद बने,
आओ, एक कविता का सृजन करें
पत्थरीले प्रगतिपथ पर पड़ा यहाँ तिमिर सघन
हताशा का दामन थामे थककर खड़े वहां कदम कई
उनके हारे बिखरे पग में, आओ, अन्तिम दीपशिखा से जलें
आओ, एक कविता का सृजन करें
आशाओं से च्युत हो गिरते हो जहाँ मन विकल,
लक्ष्य विहीन होकर मार्ग निरखते हों नयन विह्वल
उनके आहात तन को सहलाने को, आओ, मृदुल स्पर्श बने
आओ, एक कविता का सृजन करें
Wednesday, April 29, 2009
मेरा ख्याल तो आया
मुझको किस कदर तमाशा बनाया।
खैर अच्छा हुआ क्योंकि -
तमाशा देखते हैं ज़माने वाले
इसी बहाने, उन्हें मेरा ख्याल तो आया।
किसी हाशिये पर अनजान ही
कट जाती जिंदगी तन्हा मेरी,
चलो, अब सबकी जुबान पर
तेरे नाम के साथ मेरा नाम तो आया।
इसी बहाने, उन्हें मेरा ख्याल तो आया।
अब मुझसे मुखतिब हैं ज़मानेवाले
आज जिंदा हूँ पर कल मिलही जायेंगे
तेरी बेरुखी ने सच, एक फ़साना तो बनाया
इसी बहाने, उन्हें मेरा ख्याल तो आया।
Wednesday, April 22, 2009
तुझे चाहकर भुला न पाया, ये खता मेरी
तुझे चाहना, न थी भूल मेरी, मेरे हमदम,
तुझे चाहकर भुला न पाया, ये खता मेरी।
अबतक तलाशता हूँ गुमनाम भीड़ में,
तेरा चेहरा इस उम्मीद के साथ।
मिल ही जाए शायद तू मुझे -
किसी मोड़ पर किसी रकीब के साथ।
गर तू मिलकर भी न देखे मेरी ओर,
कोई अफ़सोस न होगा मुझे।
कोई सबब तो मेरे इश्क का ही होगा
जो अब तक रोकता होगा तुझे।
जब फासले हमारे दिलों में हो तो,
जिस्म की दूरियों का क्या गम?
खेल-ऐ-आरजू में कत्ल-ऐ-दिल हकीकत,
ए दोस्त, कभी हम तो कभी तुम।
तुझे चाहना न थी, भूल मेरी, मेरे हमदम,
तुझे चाहकर भुला न पाया, ये खता मेरी।
तुझे चाहकर भुला न पाया, ये सज़ा मेरी।
Monday, April 6, 2009
निःशब्द प्रेम प्रतिज्ञा
सीले सिरहाने पर रख छोड़ा हैं ,
एक तेरा स्वप्न अधूरा गीला सा
तुम हो जिसमे मैं हूँ और
वो वर्षों का एकाकीपन हैं
तेरी लाज के आँचल पर,
अब तक ठिठका मेरा मन हैं।
सिमटे सकुचे तुम बैठे थे जैसे ,
उस पहली अपनी मुलाकात में ।
अब भी वैसे ही मिलते हो मुझको,
हर भीगी सीली श्यामल रात में ।
अपनी मृग-चंचल आँखों में
एक मदहोश शरारत से -
निःशब्द ही कह जाते हो ,
चिर-पुरातन अपनी प्रेम-प्रतिज्ञा ,
जिसके बंधन में ही ,
मेरी मुक्ति का सार छिपा हैं।
जिसकी परिधि में ही
मेरा सारा संसार बसा हैं।
अपनी आहो से छूता हूँ ,
हर दिन तेरी कोमल श्वासों को ।
अपनी तृष्णा की तृप्ति को
पीता हूँ तेरी प्यास के प्यालों को ।
स्वप्न रहे थे तुम,
स्वपनों में ही पाता हूँ ।
अपनी निःशब्द प्रेम प्रतिज्ञा को
ऐसे ही हर शाम निभाता हूँ।
Monday, March 30, 2009
क्या थे वो तेरे हर्फ़ अनकहे
कितने भीगे मौसम की चुप्पी लपेटे,
वो बेकरार सवाल अब भी रूठा बैठा हैं
क्या इश्क तुझे भी था मुझसे या
वो मेरी आँखों का ही एक धोखा था
जिस पल मैंने तुझको थामा था
तुने क्या कहने से खुदको रोका था
उदू का डर था या रुसवाई का या -
एक इशारा था आने वाली तनहाई का
मेरे सीने पर सर रखकर छूटी
तेरी आधी अधूरी सी सिसकी
क्या बतलाती थी मुझको उस पल,
तू अब न मुझसे मिलने आएगी
चंद शबों में तू भी गैरों सी हो जायेगी
तू तो चली गयी कह कर
वो उलझे उलझे हर्फ़ अनकहे
पर उस रात को मैं अब भी
हर पल जीया करता हूँ,
ख़ुद से ही पूंछा करता हूँ
क्या थे वो तेरे हर्फ़ अनकहे
Sunday, March 22, 2009
मैं शिव क्यों नहीं हो पाता?
काल-मंथन से उपजा
उसी गर्भ से -
नित्य ही करते
जिज्ञासा मार्ग अवरुद्ध ।
शिव न हो पाता हूँ।