
एक जागती रात के सिरहाने बैठकर,
आकाश की काली आँखों में झांककर,
मैंने अपना एक निर्वस्त्र दर्द उठाया
झूठे सपनो के तार-तार से कपड़े पहनाये
जो बचा, उसे दुनियादारी के -
फटेहाल पैबन्दों से छिपाया
न चेहरा देखा, न रूह नापी
सिर्फ़ एक एहसास पर कि
एक दिन मेरे दायरों से निकल कर
कहीं एक ग़ज़ल की खुली साँस लेगा ,
उसे दफ़न कर दिया ,
डायरी के मटमैले पन्नो पर ...
वाह सुंदर भाव...सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर रचना, लाजवाब।
ReplyDeleteदिल में झाँकती रचना है
ReplyDelete---
'चर्चा' पर पढ़िए: पाणिनि – व्याकरण के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार
वाह !
ReplyDeleteअत्यन्त कोमल अभिव्यक्ति ....
गहरी रचना
सौम्य रचना
___________हार्दिक बधाई !
aapki kalam ne kamaal kiya hai aaj
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteझूठे सपनो के तार-तार से कपड़े पहनाये
ReplyDeleteजो बचा, उसे दुनियादारी के -
फटेहाल पैबन्दों से छिपाया
न चेहरा देखा, न रूह नापी
सिर्फ़ एक एहसास पर कि
एक दिन मेरे दायरों से निकल कर
कहीं एक ग़ज़ल की खुली साँस लेगा ,
बहुत गहरी भावमय और लाजवाब अभिव्यक्ति है बधाई