प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, October 6, 2009

दीप-पीड़ा



कभी-कभी ऐसा भी होता है,
जिंदगी के रोज़ बदले चेहरों में,
चुपचाप जलते दीप के नीचे
खामोश पनपते अंधेरों में |
मांगता हैं कोई, मौन ही
अपना अंश का खोया प्रकाश,
बाँटकर चहूँ ओर रश्मि-उल्लास|
फिर देखकर अपना नीड़ निराश,
सोचता है अनवरत निर्विकार
देकर वेदना के स्वरों को विस्तार,
बिना चीत्कार, बिना हाहाकार,
क्या यही मूल्य है, जग-कल्याण का?
सर्व-हिताय शीरोधार्य ज्योत्सना प्राण का?      
विस्तृत अनन्त तक मेरा ज्योति यश
मेरी परिधियों में ही क्यों पनपता तमस?
समरग्रस्त मैं जब सदैव ही तिमिर-प्रसार से
ठहरा कृष्णांश  मेरे सानिध्य, किस अधिकार से?

कौन समझाए उन भावुक युद्धरत बिचारों को |
सबके लिए स्वयं दहकते , राख होते अंगारों को  |
जिन  अंधेरों से वो उम्र भर लड़ते हैं,
वो उनकी ही पनाहों में ही पनपते हैं,
दोनों  ही  पूरक हैं एक दूसरे के,
बिना  परस्पर अस्तित्व दोनों ही अधूरे से   |
यदि तिमिर पूर्णत: मिट जायेगा,
फिर नव दीप कौन जलाएगा  ?
नकारे जाते हैं दोनों दीप और अँधेरे,
आते  ही  मृदुल सुबह सवेरे |
स्वार्थवश छलता हैं दोनों को ही रातभर कोई,
उनके अपने अपने धर्म के छद्म नामों  पर ,
रश्मि उत्सव की पुरातन रीति और
तमस-स्वभाव के अर्थहीन इल्जामों  पर |
हर तिमिर-पग पर प्रज्वलित  दीप कई
हर साँझ  की यही नित्य  क्रीड़ा  हैं |
अपने अस्तित्व से ही लड़ते दीपक को
कौन समझाए वस्तुतः क्या पीड़ा हैं?

8 comments:

  1. रश्मि उत्सव की पुरातन रीति और
    तमस-स्वभाव के अर्थहीन इल्जामों पर |
    हर तिमिर-पग पर प्रज्वलित दीप कई
    हर साँझ की यही नित्य क्रीड़ा हैं |

    शब्दों और विचारों की प्रवाह कविता एक सुंदर दिशा देती हुई...अत्यंत सुंदर रचना..
    बधाई..

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  2. जिन अंधेरों से वो उम्र भर लड़ते हैं,
    वो उनकी ही पनाहों में ही पनपते हैं,
    बहुत सुन्दर, बेहतरीन

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  3. जिन अंधेरों से वो उम्र भर लड़ते हैं,
    वो उनकी ही पनाहों में ही पनपते हैं,

    बहुत उम्दा रचना है।
    बधाई!

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  4. बहुत खूब .. यह बहुत पसंद आई शुक्रिया

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  5. यदि तिमिर पूर्णत: मिट जायेगा,
    फिर नव दीप कौन जलाएगा ?
    नकारे जाते हैं दोनों दीप और अँधेरे,
    आते ही मृदुल सुबह सवेरे |

    Uttam......aapka style and hindi bhasha par kada dono hi zabardast hai.

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  6. कौन समझाए उन भावुक युद्धरत बिचारों को |
    सबके लिए स्वयं दहकते , राख होते अंगारों को |
    जिन अंधेरों से वो उम्र भर लड़ते हैं,
    वो उनकी ही पनाहों में ही पनपते हैं,
    दोनों ही पूरक हैं एक दूसरे के,
    बिना परस्पर अस्तित्व दोनों ही अधूरे से |
    कितनी गहरी और सही बात कही है पूरी रचना बहुत सुन्दर है। आपकी हिन्दी बहुत समृ्द्ध है बधाई

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  7. भाई बहुत कड़ी हिन्दी लिखते हो..बहुत सुंदर.

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