इश्क का है फ़साना, सबको खुल कर बताते क्यों नहीं.
दिल पे हैं ज़ख्म कई, ग़ज़ल कोई गुनगुनाते क्यों नहीं
वो कहते हैं कि इश्क में शर्म-औ'-हया हैं पिछले ज़माने की बातें,
हमने तो कह दिया है खुलकर, तुम अब नजरें मिलाते क्यों नहीं
बहुत मजाजी है मिजाज़-ए-यार हमारे दिलबर का,
ख़त लिखते हैं कि हम कब से रूठे हैं, मानते क्यों नहीं
दिल लगाकर दिल मिटाना हैं आदत हुस्नवालों की,
वो आकर मजबूरी-ए-हालात गिनाते क्यों नहीं
वक्त की हवाएं धुंधला देती हैं हर मंजर निगाहों में,
कितने तूफां गुजरे, तेरे ख्याबों को मिटाते क्यों नहीं.
इश्क में जलकर मर मिटना तो हर परवाने का हैं जुनूँ,
कत्ल हुए कितने, लोग शमाँ-ए-बज्म को बुझाते क्यों नहीं
बहुत रुस्वां हुआ हूँ तेरे इश्क की खातिर मैं,
तुम बीती बातों से कुछ पर्दा उठाते क्यों नहीं
देते ही रहते हैं तंज़ के मुबारक तोफहे मुझको,
नाकाम फसानों को ज़मानेवाले भुलाते क्यों नहीं
गम-ए-हिज्र का मय औ' मीना से हैं रिश्ता पुराना ,
कशाने-इश्क पूछे है साकी पर पिलाते क्यों नहीं.
कब का मर गया है दास्ताँ उसके जाने के बाद,
साँसों में लिपटी पड़ी है मिट्टी, लोग उठाते क्यों नहीं.
साँसों में लिपटी पड़ी है मिट्टी, लोग उठाते क्यों नहीं.
ReplyDeleteयह पंक्ति दिल छू गयी..
देते ही रहते हैं तंज़ के मुबारक तोफहे मुझको,
ReplyDeleteनाकाम फसानों को ज़मानेवाले भुलाते क्यों नहीं
-बहुत सुन्दर!! पसंद आई.
बहुत रुस्वां हुआ हूँ तेरे इश्क की खातिर मैं,
ReplyDeleteतुम बीती बातों से कुछ पर्दा उठाते क्यों नहीं
सुन्दर बधाई
bahut pyari rachna, badhai........
ReplyDeleteइश्क में जलकर मर मिटना तो हर परवाने का हैं जुनूँ,
ReplyDeleteकत्ल हुए कितने, लोग शमाँ-ए-बज्म को बुझाते क्यों नहीं
simple awesome bhai...
कब का मर गया है दास्ताँ उसके जाने के बाद,
ReplyDeleteसाँसों में लिपटी पड़ी है मिट्टी, लोग उठाते क्यों नहीं.
बहुत सुन्दर
सुन्दर।
ReplyDeleteबाद मी आती हूँ दाँत मे दर्द है शाम को शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteधनतेरस, दीपावली और भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!
गज़ल को बहुत इतमिनान से पढती हूँ उस समय पढ नहीं पाई थी । आब सोच रही हूँ कि कमेन्ट किस किस पँक्ति के लिये दूँ अच्छा था ये कह कर चली जाती लाजवाब । अब इस गज़ल की एक एक लोने क्या शब्द भी लाजवाब है पूरी गज़ल दिल मे उतर गयी।
ReplyDeleteवक्त की हवाएं धुंधला देती हैं हर मंजर निगाहों में,
कितने तूफां गुजरे, तेरे ख्याबों को मिटाते क्यों नहीं.
इश्क में जलकर मर मिटना तो हर परवाने का हैं जुनूँ,
कत्ल हुए कितने, लोग शमाँ-ए-बज्म को बुझाते क्यों नहीं
बहुत खूबसूरत शेर है बधाई मेरे सभी छोटे बडे भाई लाजवाब शायर हैं पता नहीं येबहन ही क्यों नालायक रह गयी दीपावली की आपको और पूरी परिवार को शुभकामनायें
बेहतरीन रचना बहुत अच्छा लिखा है आपने
ReplyDeleteachchhi rachana , pasand aayi
ReplyDeleteकब का मर गया है दास्ताँ उसके जाने के बाद,
ReplyDeleteसाँसों में लिपटी पड़ी है मिट्टी, लोग उठाते क्यों नहीं.
yeh panktiyan bahut achci lagin...........
behtareen.........
बहुत खूबसूरत...दिल को छू लेने वाली...
ReplyDeleteबहुत मजाजी है मिजाज़-ए-यार हमारे दिलबर का,
ReplyDeleteख़त लिखते हैं कि हम कब से रूठे हैं, मानते क्यों नहीं........waise to sabhi line achchi hai but this one is fantastic
साल की सबसे अंधेरी रात में
ReplyDeleteदीप इक जलता हुआ बस हाथ में
लेकर चलें करने धरा ज्योतिर्मयी
कड़वाहटों को छोड़ कर पीछे कहीं
अपना-पराया भूल कर झगडे सभी
झटकें सभी तकरार ज्यों आयी-गयी
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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