प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, July 7, 2009

हा! कैसा छद्म जीवन ?


मुस्कानों के मुखोटे
अठठासों के लिबास
वस्तुतः रुदन -
हा! कैसा छद्म जीवन ?



विरल सुख, गहन दुःख
फ़िर भी शांत मुख,
नित्य अभिनय नूतन,
हा! कैसा छद्म जीवन ?



दृष्टिगोचर कलरव,
रश्मि का उत्सव,
पर सत्य, निशा-क्रंदन
हा! कैसा छद्म जीवन ?



रिश्तों की भीड़,
सह एकाकी पीर,
मुक्ति या बंधन
हा! कैसा छद्म जीवन ?



दायित्वों के बोझ,
इच्छाओं का रोष,
पर रुग्ण तन -
हा! कैसा छद्म जीवन ?



धर्म की सोच,
कर्म का बोध,
कहाँ मुक्त मन?
हा! कैसा छद्म जीवन ?



गतिमान तन,
आशावान मन,
सत्य मृत्यु या चेतन
हा! कैसा छद्म जीवन ?

4 comments:

  1. After such a long time I read such a nice poem.
    Awesome...

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  2. मुस्कानों के मुखोटे
    अठठासों के लिबास
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.

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