प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, February 24, 2009

एक भीड़ दुनियादारी की

एक भीड़ दुनियादारी की, मैं भी चल रहा हूँ,
एक वजूद था मेरा, धीरे-धीरे वो भी कुचल रहा हूँ।
मेहँदी तो नहीं मैं कि कुचल कर ही रंगत पाऊं
हिस्सा हूँ तेरा ए-ज़माने बिछड़ कर किधर जाऊँ

कतरा-कतरा बट गया, कोई भी न रहा चेहरा मेरा
हर पग में एक बवंडर हैं, मिलता ही नहीं बसेरा मेरा
ख़ुद को पाने की चाहत में सब कुछ खोता जाता हूँ,
खेल अजब हैं दुनिया का, ख़ुद को हारा ही मैं पता हूँ।

जब हर घट इस माटी का, तो मैं क्यों रीता जाता हूँ।
जब मन में एक मरघट हैं, तो मैं क्यों जीता जाता हूँ।
यह कैसा दौर हैं मेरे दोस्त!, मैं ख़ुद ही ख़ुद को छल रहा हूँ।
एक भीड़ दुनियादारी की, मैं भी चल रहा हूँ।

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