प्रिय तुम!!
मुक्त कर दो मुझे,
प्राण परिधियों से...
दिग्भ्रमित करती अविरत
जीवन मोहनियों* से
मैं प्रज्वलित निष्प्रदीप
व्यर्थ होता जीवन-यज्ञ
विचलित मन-खग
स्थिल हो रुकते पग
प्रीत कर पिंजर से
मुष्ठियों में ढूंढता नभ
श्वास क्षितिज के पार
जहाँ बिंदु भर लगता
व्योम-विस्तार
काल-खण्डों की -
कल्प-गणना से विरक्त
अनन्त से अनन्त तक
दृष्टव्य जहाँ उन्मुक्त सत्य
शुभ्र, सनातन किन्तु अव्यक्त
लेकर वही उसका पथ-प्रखर
हे कमनीय! बन कुंदन
शाश्वत जाऊँ मैं निखर
प्रिय तुम!!
मुक्त कर दो मुझे,
प्राण परिधियों से...
मुक्त कर दो मुझे,
प्राण परिधियों से...
* जीवन मोहिनियों = पंच-विकार; काम, क्रोध, लोभ मोह और अहंकार
आपके शब्दों का चयन, संयोजन व प्रेषण आपको सदा के लिये उपलब्धियों से बाँध कर रखेगा । इतना सुन्दर लिखेंगे तो मुक्ति कहाँ पायेंगे, श्रीमन ।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना...शब्द संयोजन बेहतरीन
ReplyDeleteबेहतरीन दर्शन्…………गज़ब की प्रस्तुति।
ReplyDeleteफेसबुक से मित्र वागीश की टिप्पणी...
ReplyDeleteVagish Gupta commented on your note "मुक्ति-कामना":
"Good one."