प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, June 29, 2010

मुक्ति-कामना



प्रिय तुम!!
मुक्त कर दो मुझे,
प्राण परिधियों से...
दिग्भ्रमित करती अविरत 
जीवन मोहनियों* से 

मैं प्रज्वलित निष्प्रदीप
व्यर्थ होता जीवन-यज्ञ
विचलित मन-खग
स्थिल हो रुकते पग
प्रीत कर पिंजर से
मुष्ठियों में ढूंढता नभ

श्वास क्षितिज के पार
जहाँ बिंदु भर लगता
व्योम-विस्तार
काल-खण्डों की -
कल्प-गणना से विरक्त
अनन्त से अनन्त तक
दृष्टव्य जहाँ उन्मुक्त सत्य
शुभ्र, सनातन किन्तु अव्यक्त

लेकर वही उसका पथ-प्रखर
हे कमनीय! बन कुंदन
शाश्वत जाऊँ मैं निखर
प्रिय तुम!!
मुक्त कर दो मुझे,
प्राण परिधियों से...


* जीवन मोहिनियों  = पंच-विकार; काम, क्रोध, लोभ मोह और अहंकार

4 comments:

  1. आपके शब्दों का चयन, संयोजन व प्रेषण आपको सदा के लिये उपलब्धियों से बाँध कर रखेगा । इतना सुन्दर लिखेंगे तो मुक्ति कहाँ पायेंगे, श्रीमन ।

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  2. बहुत खूबसूरत रचना...शब्द संयोजन बेहतरीन

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  3. बेहतरीन दर्शन्…………गज़ब की प्रस्तुति।

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  4. फेसबुक से मित्र वागीश की टिप्पणी...

    Vagish Gupta commented on your note "मुक्ति-कामना":

    "Good one."

    ReplyDelete

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