आया है ख़त उसका कि अब भूल जाऊं उसे
ग़ज़ल न रही वो मेरी, अब न गुनगुनाऊ उसे
रहा यतीम ख्याल सुनहरा तेरे मेरे रिश्ते का
जब न कोई निस्बत तुझसे तो क्या अपनाऊँ उसे
उफ़क तक भी न पहुंचा अहसास अक़ीदत का
खौफज़दा सजदों का सच, मैं क्या बतलाऊँ उसे
बढ़ गया बहुत आगे वो लेकर नाम तिजारत का
दिल औ' जज्बातों की बात अब क्या समझाऊँ उसे
सच कहता है वो बनकर रहनुमा हम गरीबों का
हालात-ए-मुफलिसी बयाँ करके क्यों झूठलाऊँ उसे
नाम न दे सके जिस अहसास को दुनियादारी का
दिल औ' जज्बातों की बात अब क्या समझाऊँ उसे
सच कहता है वो बनकर रहनुमा हम गरीबों का
हालात-ए-मुफलिसी बयाँ करके क्यों झूठलाऊँ उसे
नाम न दे सके जिस अहसास को दुनियादारी का
क्यों ज़रूरी हैं कि मैं किसी नाम से बुलाऊँ उसे
हद-ए-आईने में कैद हैं एक शख्स दास्ताँ तुझ सा
छोड़े खामोशियों की चिलमन, तो पहचान पाऊँ उसे
एेसी बातें उसने कैसे लिख दीं
ReplyDeleteइस बात पर क्यों न दो लगाऊं उसे
http://udbhavna.blogspot.com/
बहुत खूब!
ReplyDeleteआया है ख़त उसका कि अब भूल जाऊं उसे
ReplyDeleteग़ज़ल न रही वो मेरी, अब न गुनगुनाऊ उसे
बहुत खूब!
नाम न दे सके जिस अहसास को दुनियादारी का
ReplyDeleteक्यों ज़रूरी हैं कि मैं किसी नाम से बुलाऊँ उसे
और फिर एहसास का कोई नाम नहीं होता है
भावों को बड़े सलीके से पिरोया है ।
ReplyDeletewaah bahut khoob...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना है!
ReplyDeleteबधाई!