रोज रोज-
काल-मंथन से उपजा
काल-मंथन से उपजा
सांसो का हलाहल
मैं पीता जाता
फ़िर यह संशय
मुझको खाता
मैं शिव
क्यों नही हो पाता?
अपने अंतर में
खंडित यह बोध लिए
पाप-पुण्य से रंजित
एक सोच लिए
अपनी दुविधा से
जन्मे दर्शन में
करता मीमांसा,
जहाँ जन्मा प्रश्न,
उसी गर्भ से -
उसी गर्भ से -
उत्तर की आकांक्षा।
अपने तर्क-वितर्क उलझते
एक दुसरे के विरुद्ध
नित्य ही करते
जिज्ञासा मार्ग अवरुद्ध ।
नित्य ही करते
जिज्ञासा मार्ग अवरुद्ध ।
पर इन सबसे इतर,
एक चिंतन नश्वर,
उकेरता मन में,
उत्तर के अक्षर ।
संभवतः मैं
जीवन की विषमताओ पर,
तांडव न कर पाता हूँ,
काम के मोहक आघातों पर,
क्रोधित न हो पाता हूँ।
इच्छाओ की मृग-तृष्णा में,
स्वं स्थिर न रह पाता हूँ
हलाहल पीकर भी -
जीवन को ललचाता हूँ।
संभवतः इस कारण मैं
शिव न हो पाता हूँ।
शिव न हो पाता हूँ।
अपने प्रश्न का उत्तर स्वयम आपने ढूंड लिया . सुंदर कविता बहुत ही सुंदर ,शुद्ध हिंदी
ReplyDeleteखुद से सवाल भी ... खुद ही जवाब भी ... और वह भी सुंदर प्रस्तुतिकरण के साथ ... बहुत बढिया।
ReplyDeleteइच्छाओ की मृग-तृष्णा में,
ReplyDeleteस्वं स्थिर न रह पाता हूँ
हलाहल पीकर भी -
जीवन को ललचाता हूँ।
संभवतः इस कारण मैं
शिव न हो पाता हूँ।
.... प्रसंशनीय रचना है, शुभकामनाएँ।
---सुन्दर रचना....
ReplyDeleteजीवन को जीना चाहिए हलाहल पीकर भी स्थिर रहना चाहिए , ललचाए बिना ..वही शिव बन सकता है...
---सुन्दर रचना....
ReplyDeleteजीवन को जीना चाहिए हलाहल पीकर भी स्थिर रहना चाहिए , ललचाए बिना ..वही शिव बन सकता है...
NIJANAND SWRUPAM SHIVOHAM SHIVOHAM
ReplyDeleteGYANSWRUPAM SHIVOHAM SHIVOHAM
PRAKASH SWRUPAM SHIVOHAM SHIVOHAM