जिंदगी की फटेहाल जेब को ,
टटोल कर देखा, तो पाया कि
उसूलो की कुछ चिल्लर पड़ी हैं।
कितनी गिरी और कितनी बची
इसका कोई अंदाज नहीं -
वैसे भी, इस महंगाई के दौर में
किसी काम की आज नहीं।
कबके बदल गए वो सिक्के ,
जो घर खुशियाँ लाया करते थे,
अब तो सरे-बाज़ार बेचकर ईमान,
खुलूस के पैबंद भी नहीं मिलते।
हर हाट में खुली हैं दुकान,
क्या-क्या समान नहीं मिलते
इंसानों की क्या कहें, ऐ दोस्त!
भगवानो के भी वो दाम नहीं मिलते
bahut sundar kavita.
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