प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Monday, March 16, 2009

कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।

इश्क का फरमान हैं -
आँखों से जता, होठो से बता,
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।


क्या देखता हैं तू, ज़माने की तपिश,
इश्क का हैं यह खेल मेरे यार! गर हैं-
तो फ़िर तू भी जल मुझको भी जला
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।


इश्क को चुपचाप सिसकियाँ भरकर,
दबे पाँव गुजर जाने की हैं आदत।
आह-ऐ-दिल सुन औ' मुझको भी सुना
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।


कितने रांझे भटक गए हीरों की तलाश में,
कितनी शमायें बुझ गयीं पतंगे की आस में,
न ठहर, कदम दो कदम ही, मेरी ओर तो बढ़ा
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।


बेनाम किरदारों की कहानी भुला देते हैं ज़माने वाले ,
तेरे गम पर हँसते हैं, तेरे साथ आंसू बहाने वाले,
नाम ने दे इस रिश्ते को पर एक अफसाना तो बना,
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।


6 comments:

  1. क्या बात है...भाई वाह...बेजोड़ रचना है आपकी...
    नीरज

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  2. इश्क को चुपचाप सिसकियाँ भरकर,
    दबे पाँव गुजर जाने की हैं आदत।
    आह-ऐ-दिल सुन औ' मुझको भी सुना
    कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।

    बहुत बढ़िया...

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  3. bahut achchha likha hai aapne ....jaise
    इश्क को चुपचाप सिसकियाँ भरकर,
    दबे पाँव गुजर जाने की हैं आदत।

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