आँखों से जता, होठो से बता,
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।
क्या देखता हैं तू, ज़माने की तपिश,
इश्क का हैं यह खेल मेरे यार! गर हैं-
तो फ़िर तू भी जल मुझको भी जला
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।
इश्क को चुपचाप सिसकियाँ भरकर,
दबे पाँव गुजर जाने की हैं आदत।
आह-ऐ-दिल सुन औ' मुझको भी सुना
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।
कितने रांझे भटक गए हीरों की तलाश में,
कितनी शमायें बुझ गयीं पतंगे की आस में,
न ठहर, कदम दो कदम ही, मेरी ओर तो बढ़ा
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।
बेनाम किरदारों की कहानी भुला देते हैं ज़माने वाले ,
तेरे गम पर हँसते हैं, तेरे साथ आंसू बहाने वाले,
नाम ने दे इस रिश्ते को पर एक अफसाना तो बना,
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।
बहुत बढ़िया!!
ReplyDeleteउम्दा
ReplyDeleteक्या बात है...भाई वाह...बेजोड़ रचना है आपकी...
ReplyDeleteनीरज
इश्क को चुपचाप सिसकियाँ भरकर,
ReplyDeleteदबे पाँव गुजर जाने की हैं आदत।
आह-ऐ-दिल सुन औ' मुझको भी सुना
कभी तू भी मुझे मेरे नाम से बुला।
बहुत बढ़िया...
bahut achchha likha hai aapne ....jaise
ReplyDeleteइश्क को चुपचाप सिसकियाँ भरकर,
दबे पाँव गुजर जाने की हैं आदत।
bahut badhiya likha hai....badhai.
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