प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, June 29, 2010

मुक्ति-कामना



प्रिय तुम!!
मुक्त कर दो मुझे,
प्राण परिधियों से...
दिग्भ्रमित करती अविरत 
जीवन मोहनियों* से 

मैं प्रज्वलित निष्प्रदीप
व्यर्थ होता जीवन-यज्ञ
विचलित मन-खग
स्थिल हो रुकते पग
प्रीत कर पिंजर से
मुष्ठियों में ढूंढता नभ

श्वास क्षितिज के पार
जहाँ बिंदु भर लगता
व्योम-विस्तार
काल-खण्डों की -
कल्प-गणना से विरक्त
अनन्त से अनन्त तक
दृष्टव्य जहाँ उन्मुक्त सत्य
शुभ्र, सनातन किन्तु अव्यक्त

लेकर वही उसका पथ-प्रखर
हे कमनीय! बन कुंदन
शाश्वत जाऊँ मैं निखर
प्रिय तुम!!
मुक्त कर दो मुझे,
प्राण परिधियों से...


* जीवन मोहिनियों  = पंच-विकार; काम, क्रोध, लोभ मोह और अहंकार

Tuesday, June 22, 2010

नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं


नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं
गढ़ लेते हैं स्वप्न जिनका कोई आधार नहीं

एक ख्याल की बंदिश पर कई राग सजाते है,
यूँ ही बैठे बैठे, न जाने किंतने आलाप लगाते हैं
वो सरगम गाते हैं जिसका कोई रचनाकार नहीं 
नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं...

कैसा भी हो काव्य-भाव बस अनुराग सुझाता है
टूटे-फूटे छंदों पर भी, मन अलंकार सजाता है
वो गीत सुनाते है जिसका कोई गीतकार नहीं
नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं...

सुख-दुःख के पखवाड़े पर, आशा-दीप जलाते है
बैरी ह्रदय पुष्प पर भी बन प्रीत-भ्रमर मडराते है
सब अपने से लगते हैं, पराया यह संसार नहीं
नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं...

बहकी बहकी बातों से मन को बहलातें हैं
घंटों बस मौन से न जाने क्या बतियाते हैं
उन प्रश्नों पर ठहरे जिनको उत्तर दरकार नहीं  
नयनो से बड़ा होता कोई शिल्पकार नहीं...

Tuesday, June 8, 2010

केहि बिधि मिट्टी से मिट्टी मिल जावे...

मित्रों,

ऐसे ही फुर्सत के कुछ लम्हों में एक ताल के किनारे बैठे हुए, मेरोरियल डे के दिन (मई ५, २०१०) चंद पंक्तियाँ मन में उपजी...उन्हें सूफियाना रंग और विस्तार  देकर प्रस्तुत कर रहा हूँ,  वैसे तो सूफी गीतों पर मेरी कोई पकड़ नहीं हैं पर फिर भी विश्वास है कि आप मेरी इस कोशिश को सदैव की भांति अपना स्नेह देंगे.
सादर,
सुधीर


कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे
दाग देय देंह को कोई, या मिट्टी में मिट्टी दबवाबे
पिया-मिलन की आस है, बाबुल के रिश्ते  बिसरावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

सुलगी जब नयनन की बाती, दहकी सांसों से छाती
बहुत जली पीहर मैं तो, विरह की तपन में मैं तो
कोई तो पिय को बतलावे, लेप-चंदन से मिट न पावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

पीहर के खेल-तमाशे, कुछ बाँधे कुछ समझ न आवे
पिय ने बिसरा मोको पर जियरा पिय को न बिसरावे
इक नेह की डोर से बँधे हैं कैसे कोई बंधन छुटबावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

जग की है रीति पुरानी, पीहर का कितना दाना पानी
पग-फेरे की बात थी अपनी, निठुर की देखो मनमानी
कैसे भूले वो प्रेम-कहानी, कोई तो उनको याद करावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे
दाग देय देंह को कोई, या मिट्टी में मिट्टी दबवाबे
पिया-मिलन की आस है, बाबुल के रिश्ते बिसरावे
कहे सुधीर केहि बिधि, मिट्टी से मिट्टी मिल जावे

Tuesday, June 1, 2010

उसका आया है ख़त कि भूल जाऊं उसे


आया है ख़त उसका कि अब भूल जाऊं उसे
ग़ज़ल न रही वो मेरी, अब न गुनगुनाऊ उसे

रहा यतीम ख्याल सुनहरा तेरे मेरे रिश्ते का
जब न कोई निस्बत तुझसे तो क्या अपनाऊँ उसे

उफ़क तक भी न पहुंचा अहसास अक़ीदत का
खौफज़दा सजदों का सच, मैं क्या बतलाऊँ उसे

बढ़ गया बहुत आगे वो लेकर नाम तिजारत का
दिल औ' जज्बातों की बात अब क्या समझाऊँ उसे

सच कहता है वो बनकर रहनुमा हम गरीबों का
हालात-ए-मुफलिसी बयाँ करके  क्यों झूठलाऊँ उसे

नाम न दे सके जिस अहसास को दुनियादारी का  
क्यों ज़रूरी हैं कि मैं किसी नाम से बुलाऊँ उसे 

हद-ए-आईने में कैद हैं एक शख्स दास्ताँ तुझ सा
छोड़े खामोशियों की चिलमन,  तो पहचान पाऊँ उसे
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