प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, April 27, 2010

दर्द-ए-दिल दिल तक ही रखूँ, यह ज़रूरी तो नहीं


दर्द-ए-दिल दिल तक ही रखूँ, यह ज़रूरी तो नहीं,
सरेआम रों दूँ, पर ऐसी भी मेरी मजबूरी  तो नहीं

ज़माने का दस्तूर निभाना, है हिदायत वाइज़  की
फिर मिलेगी जन्नत पर यह उम्मीद पूरी तो नहीं

डरता हूँ बेअदबी की तोहमत न दे मुझको  ज़माना
बस सच कहता हूँ, फितरत मेरी जी-हुजूरी  तो नहीं 

दर्द हद से गुजर गया होगा जर्ब चाक-जिगर का
आवाज भर्राई है पर ऑंखें उसकी सिंदूरी तो नहीं

खो गया कहीं रिश्ता हमारा वक्त की सियासत में
फिर भी पास है तू, एक हिचकी कोई दूरी तो नहीं

वो जाते जाते जिंदगी मेरी ख़लाओं से भर गया
शिकवा क्या करे दास्ताँ, जिंदगी अधूरी तो नहीं

8 comments:

  1. waah maza aa gaya..dard ki bauchhar...

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  2. दर्द-ए-दिल दिल तक ही रखूँ, यह ज़रूरी तो नहीं,
    सरेआम रों दूँ, पर ऐसी भी मेरी मजबूरी तो नहीं


    उम्दा कहन

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  3. बेहतरीन..आनन्द आया.

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  4. BAHUT KHUB

    वो जाते जाते जिंदगी मेरी ख़लाओं से भर गया
    शिकवा क्या करे दास्ताँ, जिंदगी अधूरी तो नहीं

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  5. वाह इसे कहते बेहतरीन कृति

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  6. bahul khub...
    dil bhar aaya is rachna ko padh kar!

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  7. एक हिचकी कोई दूरी तो नहीं ।

    उम्दा ।

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