सुलग कर रह गया चाँद फलक पर,
अंधियारी रातों में शोखियाँ चलती नहीं
मांग लेता खुदा से मैं भी तुझको पर,
सुना है कि खुदगर्ज दुआएँ मिलती नहीं
क्या करता मैं नुमाइश इन ज़ख्मों की
मुर्दा-दिलों में टीस कोई उठती नहीं
दौड़ना रही मजबूरी मेरी उम्र भर
गिरे देवों के लिए भी भीड़ रूकती नहीं
हमदर्द तलाशता क्या इस शहर में
गैर के फ़सानों पर कोई रोता नहीं
तन्हाइयों से रहा खुद बतियाता मैं
दर्दीले नगमों पर कोई वक्त गँवाता नहीं
थी उम्मीद मुझे एक और मुलाकात की
सोची बातें हज़ार पर कहना आसाँ नहीं
हैं ज़ख्म इतने हैं अपने चाक जिगर पर
गैरों को दिखाना अब मुझे गंवारा नहीं
बहती रहीं आँखों से, चाह मिटती नहीं
क्यों कोशिशें तुझे भूलने की चलती नहीं
मांग लेता खुदा से मैं भी तुझको पर,
सुना है कि खुदगर्ज दुआएँ मिलती नहीं
"मांग लेता खुदा से मैं भी तुझको पर,
ReplyDeleteसुना है कि खुदगर्ज दुआएँ मिलती नहीं"
बहुत खूब
मांग लेता खुदा से मैं भी तुझको पर,
ReplyDeleteसुना है कि खुदगर्ज दुआएँ मिलती नहीं
behatareen
बहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteथी उम्मीद मुझे एक और मुलाकात की
ReplyDeleteसोची बातें हज़ार पर कहना आसाँ नहीं
हैं ज़ख्म इतने हैं अपने चाक जिगर पर
गैरों को दिखाना अब मुझे गंवारा नहीं...
लोग नमक लिए फिरते हैं हाथों में ...जख्म दिखाना ठीक भी नहीं ...
सुन्दर भाव ...खूबसूरत अभिव्यक्ति
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