प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, June 30, 2009

मानव न बन पाओगे


स्मृतियों में सजग रहे स्वर्ग-नर्क की परिणति,
पाप-पुण्य से रंजित रहती मेरे कर्मो की गति ,
तेरे भी तो कर्मो का कोई लेखा-जोखा होगा -
रह-रहकर तुने भी तो अपने अन्यायों को जोड़ा होगा

चैन के नीद क्या तू सोता होगा दैव हमारे लिखकर
कष्टों के अम्बार लगाए तुने मानव जीवन पर
हमारी भाग्याख्या को तुने क्या फ़िर से वांचा होगा ?
अपनी त्रुटियों को क्या तुने फ़िर ख़ुद ही जांचा होगा ?

अपने लिखे भाग्य ख़ुद ही पर अजमा कर देखो।
पल भर मानव जीवन में तुम आकर देखो ...
प्रभु हो ! सब कुछ तुम कर जाओगे पर -
तुम पल भर भी मानव न रह पाओगे

Tuesday, June 23, 2009

मोक्षपान



झंझावातों के आँगन
तिनको के मकान ।
संघर्ष ही प्रधान या -
पलायन समाधान।
लक्ष्य को निर्वासन,
समर्पण के विकल्प ।
प्रयास सभी व्यर्थ,
क्या दीर्घ क्या अल्प ।
किसका हो आवाहन?
किसको दे हविस ?
किसका हो चरण वंदन ?
किसका लें आशीष ?
जीवन दिग्भ्रमित ,
मृत्यु रक्तरंजित...
कैसे हो मोक्षपान ?
पात्र सभी पतित ।

Tuesday, June 16, 2009

गुमनाम ही रहने दो, ज़िन्दगी के सफे


गुमनाम ही रहने दो, ज़िन्दगी के सफे।
कहीं फ़साने तारीख न बन जाएँ
माना मुझे आग से खेलने की आदत,
डर है कि कहीं दामन उसका न जल जाएँ

ज़ार-ज़ार हैं जिगर कुछ इस कदर अपना,
छूने से ही कहीं ज़र्रा-ज़र्रा न बिखर जाएँ
माना मुझे तुफानो को आजमाने की आदत,
डर है कि झोंका कोई उसतक न पहुँच जाएँ
गुमनाम ही ....

तंज़ के नश्तर भी मुबारक हैं मुझको,
ज़ख्म दर ज़ख्म हैं पाला मैंने उनको
माना मुझे नासूर रखने की ही आदत,
डर है कि शिस्त कहीं उसको न चुभ जाएँ
गुमनाम ही ...

क्या गम जो एक और नाम दे मुझको ज़माना,
उठे मेरे नाम पर फ़िर एक और फ़साना -
माना मुझे हर ज़ुबाँ पर रहने की हैं आदत,
डर है कि नाम कहीं उसका न निकल आए
गुमनाम ही ....

(१९९६ में रचित, अपनी एक पुरानी डायरी से)

Tuesday, June 9, 2009

कोई सवाल मेरे बारे में , ख़ुद से उठाते तो होगे


कभी तनहाई में जब तुम, आईने से बतियाते होगे,
कोई सवाल मेरे बारे में , ख़ुद से उठाते तो होगे

अपनी आँखों में जब पिछली कहानी दबाते होगे
कोई बूँद गालों पर गिरने से बचाते तो होगे
पढ़ी कितनी गज़लें बज्मो में मेरे गुमनाम दोस्त मैंने तेरे नाम की
कोई शेर उनमे से तुम अपना समझकर बीती बातों पर गुनगुनाते तो होगे



कई शब यारों ने छेड़ी महफिल में बातें हमारी तुम्हारी
कोई किस्सा उनका दोस्त अपने आकर तुमको भी सुनाते तो होंगे
कई किस्से नए-पुराने तुम्हे गुदगुदाते भी होंगे, रुलाते भी होंगे
कोई आह मेरे नाम की लेकर तुम सबसे घबराते तो होगे



मैंने सुना हैं कि तुम्हे न शिकवा मुझसे, मुझे न शिकायत तुझसे,
जो कह न सके हम, उस दिल्लगी को बताने को ख़त उठाते तो होंगे
वक्त ने खिंची जो दूरियां हम में, तुम ख्याबों उसे मिटाते तो होगे
कोई शाम, इस दुनिया की रिवायतों से दूर, मेरे आगोश में बिताते तो होंगे

कभी तनहाई में जब तुम, आईने से बतियाते होगे,
कोई सवाल मेरे बारे में , ख़ुद से उठाते तो होगे

Tuesday, June 2, 2009

संशय

एक दिन संध्या-बाती के बाद
अपने छत की मुंडेर पर बैठकर
किसी पुराने प्रेमी की तरह
अमावस के आकाश को निहारकर
दार्शनिक मन ने प्रश्न उछाला
सत्य क्या हैं - अँधेरा या उजाला?
मृत्यु
या जीवन? जड़ या चेतन ?

जब
ब्रम्हांड में चंहु-ओर व्याप्त हैं
तिमिर सघन, तमस सरल
सिर्फ़ ज्योति ही तो हैं विरल
अमाप्य दूरियों के सागर में,
जहाँ रश्मि भी है बूँद गागर में,
थक जाती हैं जहाँ रोशनी राहों में
बिखर जाती हैं हैं अंधेरे कि पनाहों में

सत्य
कैसे प्रकाश हो गया -
सर्वत्र व्याप्त अंधेरे का
कैसे विनाश साम्राज्य हो गया

मृत्यु भी एक अटल सत्य,
रूप चाहे हो जितना विभत्स्य।
निर्विकार सबको अपनाती हैं -
अनंत तक माँ सम गोद में उठाती हैं।
जिन्दगी का क्या?
प्रेयसी सा लम्हा दो लम्हा लुभाती हैं ,
एक प्यास और ललक से तडपती हैं ,
आँचल झटक , नज़रें पलट
न जाने कब चुपचाप निकल जाती हैं।

फ़िर क्यों उत्साहित नेत्रों से देखते हैं
सुबह के क्षणभंगुर प्रकाश को
रोशनी से भरे आकाश को
निमिष भर जीने की आस को
दो पल के जीने के प्रयास को

शायद
,
यह ही मानवपन हैं...
जिसका संघर्ष ही प्रण हैं ....
सत्य जानकर भागें क्यों?
बिना युद्घ के हम हारें क्यों ?
दो पल का जुझारूपन -
उससे क्या उत्तम जीवन
यूँ ही मिटते बढ़ जायेंगे
एक जीवन से
सौ जीवन कर जायेंगे
तिमिर बाँधता रहे ज्योति को ,
हम दीप नए जलाएंगे ।
मानव हैं - श्रम का पूजन कर
संघर्षगीत ही गायेंगे ।
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