मुसाफिर हूँ यारों, इक शहर अनजान ढूंढता हूँ
हुआ इश्क में रुस्वां, इक नई पहचान ढूंढता हूँ
मजहब के वादों पर मरते रोज़ इंसान देखता हूँ
बता दे जो खुदा को मेरा दर्द, वो अजान ढूंढता हूँ
दहशत में जीता है, बनकर तमाशाई मेरा शहर
फूँक दे जो मुर्दा दिलों में जान, वो इंसान ढूंढता हूँ
सरहदों के नाम पर, बाँट ली है यह ज़मी सबने,
पनाह दे जो हर किसी को, वो आसमान ढूंढता हूँ
तंग-हाल जीकर भी, क्या पाया है सुकून किसी ने
बेच के उसूल, इस दौर में रास्ता आसान ढूंढता हूँ
दुश्वार है बेखौफ, कुछ सुनना-सुनाना इस जहाँ में
जहाँ हो गुफ्तुगू खुद से, वो इलाका वीरान ढूंढता हूँ
असर कुछ तो हैं उसकी जफा का 'दास्ताँ' तुझपर,
देख के वो नज़रें फिराता है औ' मैं अहसान ढूंढता हूँ
बहुत बढिया गजल है बधाई।
ReplyDeleteसरहदों के नाम पर, बाँट ली है यह ज़मी सबने,
पनाह दे जो हर किसी को, वो आसमान ढूंढता हूँ
सरहदों के नाम पर, बाँट ली है यह ज़मी सबने,
ReplyDeleteपनाह दे जो हर किसी को, वो आसमान ढूंढता हूँ
संवेदनशील रचना। बधाई।
मुसाफिर हूँ यारों, इक शहर अनजान ढूंढता हूँ
ReplyDeleteहुआ इश्क में रुस्वां, इक नई पहचान ढूंढता हूँ
बहुत सुन्दर!
मजहब के वादों पर मरते रोज़ इंसान देखता हूँ
ReplyDeleteबता दे जो खुदा को मेरा दर्द, वो अजान ढूंढता हूँ
kya baat kahi hai.........kabil-e-tarif.vaise poori nazm hi lajawaab hai.
ग़ज़ल पढ़कर दिल खुश हो गया
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