ज़िन्दगी दो अल्फाजों में सिमट आती है
आह तेरे नाम से जब भी निकल आती है
दौर-ए-उल्फत में बहके होंगे कदम हमारे
अब तो तेरी हर बात संजीदा नज़र आती है
कैसे रखते हैं लोग दिल में हसरतें हज़ार
इक आरज़ू में तेरी ये उम्र गुजर आती हैं
न दिखा ज़ख़्म औ' जज़्बात ज़माने-भर को
हों करम उसके तो ये रहमत नसीब आती है
हैं यकीन दास्ताँ ठुकराएगा वो दिल तेरा
देंखे उनके जानिब ये कब खबर आती है
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ReplyDeleteभावों की प्रगाढ़ सान्ध्रता।
ReplyDeleteआपको देवउठनी के पावन पर्व पर हार्दिक बधाई
ReplyDeleteबहुत दिनो बाद पढा है। कहाँ रहते हो आज कल। कमाल की गज़ल है
ReplyDeleteकैसे रखते हैं लोग दिल में हसरतें हज़ार
इक आरज़ू में तेरी ये उम्र गुजर आती हैं
न दिखा ज़ख़्म औ' जज़्बात ज़माने-भर को
हों करम उसके तो ये रहमत नसीब आती है
वाह क्या बात है। ईद की हार्दिक शुभकामनायें।
कैसे रखते हैं लोग दिल में हसरतें हज़ार
ReplyDeleteइक आरज़ू में तेरी ये उम्र गुजर आती हैं
कितनी सुन्दर और गहरी बात कह दी…………बहुत बढिया गज़ल्।
प्रभावशाली ग़ज़ल कही है भाई आपने.
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ,अच्छी रचना , बधाई ......
ReplyDeleteग़ज़ल बहुत ही प्रभावोत्पादक है....
ReplyDeleteकैसे रखते हैं लोग दिल में हसरतें हज़ार
ReplyDeleteइक आरज़ू में तेरी ये उम्र गुजर आती हैं
Waah kamaal hai :-)