प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, November 2, 2010

ज़माना है



मेरे हालात पर क्यों हँसता ज़माना है
मेरा कातिल मेरा मुनसिब ज़माना हैं

हर गम-औ-ख़ुशी को बेबस अपनाना है
हाय! क्या बेदर्द यह दस्तूर-ए-ज़माना है

तन्हा सबको अपनी सलीबें खुद ही ढोना है
यूँ तो कहने को सबका हमदर्द ज़माना है

करके तौबा तेरे सजदे में सिर झुकाना है
इश्क-ए-इबादत को जुर्म कहता ज़माना हैं

तेरे मेरे नाम पर निकला इक फ़साना है
न छिपा अब जख्म, कुरेदेगा ज़माना है

तन्हाईयों में भी 'दास्ताँ' सलीके से रोना हैं
दिलजलों की आह को भी परखता ज़माना हैं

6 comments:

  1. तन्हाईयों में भी 'दास्ताँ' सलीके से रोना हैं
    दिलजलों की आह को भी परखता ज़माना हैं
    Bhaut sundar!

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  2. तन्हा सबको अपनी सलीबें खुद ही ढोना है
    यूँ तो कहने को सबका हमदर्द ज़माना है
    satya hai!
    sundar rachna!!!

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  3. हमको समझाने में निकाले दिन सारे,
    खुद क्यों नहीं, समझता ज़माना है।

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  4. "तन्हा सबको अपनी सलीबें खुद ही ढोना है
    यूँ तो कहने को सबका हमदर्द ज़माना है"

    खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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