हैं कई इल्जाम मुझ पर यूँ तो चुप रहने को
कैसे सरेआम कर दूं तेरे कांधे के बोसे को
कुछ तो बरकत मिली होगी भूखे पेट सोने से
वैसे तो मोमिन कहता है, कई रोज़ हैं रोजे को
चाक-जिगर है पर, दुनियादारी भी तो ज़रूरी
रोऊंगा मैं, खाली ही रखना एक तन्हा गोशे को
मुफलिसी में करता हूँ हक-ए-मजलूम की बातें
कौन सिखाये दस्तूर-ए-ज़माना मुझ सरफरोशे को
हुस्न वालों पर एतबार से 'दास्ताँ' डरना कैसा
अपने क्या कम हैं, तोड़ते तेरे दिल-भरोसे को
मुफलिसी में करता हूँ हक-ए-मजलूम की बातें
ReplyDeleteकौन सिखाये दस्तूर-ए-ज़माना मुझ सरफरोशे को
-बेहतरीन!!
कुछ तो बरकत मिली होगी भूखे पेट रहने से
ReplyDeleteवैसे तो मोमिन कहता है, कई रोज़ हैं रोजे को
बहुत खूबसूरत शेर
चुप रहने को कई इल्जाम हैं ...
ReplyDeleteभाव पूर्ण ग़ज़ल .. !!
बहुत खूब शुक्रिया इसको पढवाने के लिए
ReplyDeletebahut hisundar prastuti.
ReplyDeleteबहुत बेहतर कहा जी आपने।
ReplyDeleteखूबसूरत ग़ज़ल.....बधाई
ReplyDeleteमुफलिसी में करता हूँ हक-ए-मजलूम की बातें
ReplyDeleteकौन सिखाये दस्तूर-ए-ज़माना मुझ सरफरोशे को
लाजवाब । पूरी गज़ल बहुत अच्छी लगी । आशीर्वाद
मुफलिसी में करता हूँ हक-ए-मजलूम की बातें
ReplyDeleteकौन सिखाये दस्तूर-ए-ज़माना मुझ सरफरोशे को ....bhai waah!