आशिक़ की थी आखिरी-आह, नतीजा ज़माना-ए-बेइंसाफ की
सबको दे गया था वह दुआएं बस शिकायत अपने खिलाफ की
हुआ क़त्ल चुपचाप पर कह न सका बेवफाई यार की
रहा सोचता शब-ए-क़यामत को होगी बात इंसाफ की
खलती नहीं नाराजगी उनकी जो झूठे शिकवों से इजहार की
मालूम हैं हमको चलती नहीं देर तक ठंडक लिहाफ की
थी खबर उसको भी मेरी ताउम्र कशमकश औ' इन्तजार की
चुपचाप नज़रें फेरकर उसने, न जाने कितनी बातें साफ की
क्या मासूम है अदा दास्ताँ उनकी जुल्मत के इकरार की
पूछते हैं हमसे दिल तोड़ने की सजा भी क्या मुआफ की
वाह!! बहुत उम्दा गज़ल!
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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteरामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!
Waah! bahut hi behtreen gazal.....dhanywaad.
ReplyDeleteसुन्दर भावों से सजी रचना!
ReplyDeleteराम-नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!