प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, May 19, 2009

तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं


जब प्रिय! तुम मिलते हो तो अच्छा लगता हैं,
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।
पिछले सावन की बरसातें हम जिनसे बच कर भागे थे
उनकी कोरी बूंदों को गालों पर रखने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

जिन
खाली काली लम्बी रातों में घंटों ख़ुद से बतियातें थे ,
उनके आगोश में लिपटकर तेरी राहें तकने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

कितने ख्याबों की तामीर रहे तुम औ' कितनों में तुम आते थे,
उस एक तमन्ना से घबरा कर अब जागते रहने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

बीते सारे लम्हे, जिन पर फुर्सत में तुने मेरे नाम लिखे थे,
यूँ ही उन सब को मुठ्ठी में थामे रखने को मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

बहुत भुलाया किस्सा यह, बहुत छिपाया रिश्ता यह,
अब दो पल तुझको सबसे अपना कहने का मन करता हैं।
तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।

4 comments:

  1. बहुत भुलाया किस्सा यह, बहुत छिपाया रिश्ता यह,
    अब दो पल तुझको सबसे अपना कहने का मन करता हैं।
    तेरे काँधे पर सर रखकर रोने का मन करता हैं।
    बहुत सुंदर लिखा है ... बधाई।

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  2. मोहब्बत से भरे हुए अल्फाज़ हैं
    बेहतरीन रचना है

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  3. Accha likhte hain aap. Pasand aayi aapki rachna

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  4. भावनापूर्ण कविता है। अच्छी लगी।

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