प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Wednesday, October 27, 2010

कभी तो मिलो मेरे ख्यालातों के मोड़ पर



हुआ अरसा, कभी तो मिलो  
मेरे ख्यालातों के मोड़ पर,
देखूँ, हैं कितना बदला तसब्बुर
जो रखा ख्याबों में जोड़ कर

है इल्म कि कुछ मुश्किल होगी
पर खाली हाथ नहीं आना,
इक्का-दुक्का ही सही -
वो तीखी तकरार छिपा लाना
(क्योंकि) बड़ा विराना हो चला है
तुम्हारे बिन इंतजार का ये आलम
थोडा फीका लगने लगा है  
मुझे, अपना दागदार दामन
यूँ तो चुप्पियाँ भी आकार
अब मुझको सदाएँ नहीं देती
भूले-भटके हुए फिकरों की भी
आहटें सुनाई नहीं देती

मैंने भी,
 रस्म-अदायगी  की खातिर
देने को बासी से उल्हाने  संजोये रखे हैं
तोहफे में कुछ बेमतलब शिकवे शिकायत
बेखुदी में पनपे कुछ ख्यालात
आँखों में पुडियाए रखे है
वैसे तो तुमसे कहने को
मेरे कुछ बेपर्दा हालात भी है
साथ में, जबावों के पते खोजते
कुछ गुमशुदा सवालात भी हैं

तुम मिलना जरूर , चाहे  
हमेशा की तरह कुछ भी न कहना,
अपनी उनीदी उन्मादी आँखों से
बस हर बात पे सवाल उठाते जाना
मेरे वजूद को होने का आसरा मिल जायेगा
और हाँ!! जाते जाते तुम
मेरी यें सर्द सिसकती आहें,
बची खुची सहमी कुचली सी सांसे
सब अपने आँचल में गठिया कर लेती जाना
मुझको जिन्दा रहने का बहाना मिल जायेगा!!

कभी तो मिलो तुम मेरे ख्यालातों के मोड़ पर !!

Tuesday, October 19, 2010

कुछ तो असर आहों में है

मित्रों, 
एक लम्बे  अंतराल के बाद आप सब से मुखातिब हूँ. इस बीच कुछ समय के लिए जननी और जन्मभूमि की चरण-रज लेने हेतु भारतवर्ष गया. अपने इस यात्रा में हमने अजंता-एल्लोरा और देवगिरी दुर्ग (दौलताबाद) की भव्य विथिकायों में भी रमण करने का अवसर प्राप्त हुआ. उनकी भव्यता और कलात्मकता  देखकर  ह्रदय  कई  दिनों  तक पाषाणों पर लिखे  उन रागों के अनुराग से विरक्त नहीं हो पाया और न जाने कितनी रचनाएँ पाषाणों से लेकर पत्थर, जीवन से लेकर निर्जन पर लिख डाली.  वापस आने के बाद भी कुछ समय गृहस्थी और दाल-रोटी के चक्कर में आप से वार्ता नहीं हो पाई. लेकिन अब हाजिर हूँ . आशा हैं आपका स्नेह सैदव की भांति मुझे मिलता रहेगा.
 सादर,
सुधीर



थी मेरी मंजिल वो पर अब किसी और की राहों में है
सुना है मेरी मुन्तजिर वो कुछ तो असर आहों में है

न मिटी खलिश कि मिट जाये दूरियाँ दिल की उनसे 
बिताई हमने सिमटकर उम्र जिनकी बेवफा बाँहों में है  

सुना न  ये किताबी बाते कुफ्र औ' क़यामत की वाइज
गुजारी कोई रात क्या तुने उन जुल्फों की पनाहों में है

गोया होगा कोई और भी चेहरा दिलकश चाँद-सितारों सा
हमे तो आरजू इतनी कि मिले वो चेहरा जो निगाहों में है

खो गए 'दास्ताँ' ज़माने कितने खोकर इश्क-ए-मंजिल
हुआ है शायर तू, ये कशिश इन कुरेदे हुए घावों में है
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