जब एक कट-चाय समोसे से,
हम यह दुनिया नापा करते थे,
एक ख्याली धागे के दम पर,
हम हर सिस्टम बांधा करते थे
यूँ तो हर बात फलसफे पर होती थी
एक हम ही ज्ञानी-विज्ञानी थे बस्ती के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!
हर जटिल विषय की कक्षाएँ
केवल जीकेडी पर लगती थी
सत्तर प्रतिशत अटेनडेंस पाने को
सिर्फ प्रॉक्सी की कौडी चलती थी
यूँ तो (असाइनमेंट) टोपिंग में हम शातिर थे पर
कुछ कर जाते थे श्रमदान जूनियर्स जबरजस्ती से
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!
वैसे तो एक ख्वायिश की उलझन में
अक्सर कितनी राते जागा करते थे,
पर हर रात परीक्षा से पहले हम,
हर दिन पढने की कसमे खाया करते थे
यूँ तो एक साल में पढना मुश्किल था पर
कई पोथी घिस जाते थे एक रात में चुस्ती से
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!
एक अदद पिक्चर की खातिर हम,
हॉस्टल में सबसे चिल्लर माँगा करते थे
मुफलिसी के दौर रहे तो सब मिलकर
कपूरथला गंजिंग की गलियां नापा करते थे
यूँ तो एक मैगी से दस-दस खाया करते थे
उधार चुकाने को दिखला देते थे दांत बत्तीसी के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!
हर अखबारी कतरन पर जमकर ,
हम सबके रिश्ते छाना करते थे,
सबकी प्रेम-कहानी पर हँसते हम पर
'उससे' मिलकर बगले झाँका करते थे
यूँ तो हर बात खनक से होती थी
पर क्या समझाते उसको कारण चुप्पी के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!
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यह कविता अचानक फेसबुक पर एक लंगोटिया यार के मिल जाने पर मन से निकली आह से उत्पन्न हुई है. उससे बात करते करते कॉलेज के पुराने दिन याद आ गए. जब परीक्षा से एक रात पहले पाता चलता था कि एक पूरी कि पूरी किताब कोर्स में हैं जिसका हमे पाता ही नहीं था ...हर जटिल विषय की क्लास से हम ऐसे गायब रहते थे जैसे कि गधे के सर से सींग... सत्तर प्रतिशत उपस्थिति दर्ज हुई नहीं कि उस क्लास से हमारा डब्बा गोल, उसके बाद तो हम केवल ढाबों पर चाय की चुस्की का आनंद लेते मिलते थे. सांख्यिकी से ज्यादा मेंहनत पिया-मिलन वाले जोडों की गणना में करते थे. उस समय हम समाज और संसार के हर विषय पर बहस करने का माद्दा रखते थे और संसार की समस्त समस्याओं का समाधान तो हम बैठे बैठे चुटकियों में निकाल लेते थे. बस ढाबे की एक सांझी चाय और समोसे का भोग लगता रहे (चाहे उधारी पर ही क्यों न ) तो सामायिक विषयों से लेकर लोकल प्रेम प्रसंगों पर हमारी ज्ञान ग्रंथि खुली रहती थी. क्योंकि यह रचना दिल की अभिव्यक्ति है इसलिए मैंने कई परचित देशज (और विदेशज) शब्दों को भी नहीं बदला है. कुछ अप्रचिलित शब्दों की परिभाषा निम्न है.
जीकेडी: गुप्ता का ढाबा. लखनऊ आई.ई. टी (इन्जिनेरिंग कॉलेज) के साथ में चलने वाला ढाबा. हमारे छात्र-जीवन में सारे के सारे ढाबों का विलायतीकरण उनके नामों के संक्षिप्त करके ही किया गया था जैसे मिश्रा का ढाबा यमकेडी, गुप्ता का ढाबा जीकेडी. इस ढाबों ने जितने सपनों को बनते बिगड़ते देखा हैं शायद ही आस-पास को कोई ईलाका उसकी बराबरी कर पाए - चाहे वो नौकरी या छोकरी के सपने हो या पनपती छात्र-राजनीति की महत्वाकांक्षाएं.
टोपिंग: प्रोजेक्ट या असाइनमेंट की नक़ल (टोपने अथवा टीपने) की कला; जो अक्सर एक घिस्सू छात्र के समाधान निकालने के बाद अक्सर स्वयं या जूनियर्स द्वारा कक्षा के अन्य उन्मुक्क्त विचारों वाले छात्रों के लिए प्रतिलिपि बनाने की कला के लिए प्रयुक्त होता है.
- गंजिंग = लखनऊ के प्रगतिशील हजरतगंज के इलाके में जीवन के फलसफे और रंगीनियों को तलाशते हुए हम जैसे फक्कडों का घूमना
college ke dino ki yad karaa di aapne is rachna dwaara ... behatreen hai ...
ReplyDeleteहाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!
ReplyDeleteजब एक कट-चाय समोसे से,
हम यह दुनिया नापा करते थे,
एक ख्याली धागे के दम पर,
हम हर सिस्टम बांधा करते थे
यूँ तो हर बात फलसफे पर होती थी
एक हम ही ज्ञानी-विज्ञानी थे बस्ती के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!
बेहतरीन कविता!
बड़ी शिद्दत से याद किया है भई!! बेहतरीन रचना!
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteविश्वविद्यालय के दिन याद आ गये।
ReplyDeleteशानदार्।तारीफ़ के लिये शब्द नही है मेरे पास।ऐसा लग रहा है कि पुराने दिन फ़िर से आंखो के सामने घूम रहा है।
ReplyDeleteMaza aa gaya ...jabardast...to aap bhi Lucknow ke hi passout hai....ye I.T. girls college ke chakkar kate hai....han...sab waisa hi hai...ganzzing aaj bhi hoti hai :-)
ReplyDeleteक्या याद दिलादी आपने बिट्स पिलानी के दिनों की। नूतन मार्केट में रात बारह बजे, चाय, आलू की चिप्स और इलेक्टोमैग्नेटिक्स के घालमेल के क्षण! तीन दशक से ऊपर हो गये!
ReplyDeletepoori tarah se to nahi ...par thodi- thodi hi sahi mere beete din bhi aap jaise hi the...
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