हुआ अरसा, कभी तो मिलो
मेरे ख्यालातों के मोड़ पर,
देखूँ, हैं कितना बदला तसब्बुर
जो रखा ख्याबों में जोड़ कर
है इल्म कि कुछ मुश्किल होगी
पर खाली हाथ नहीं आना,
इक्का-दुक्का ही सही -
वो तीखी तकरार छिपा लाना
(क्योंकि) बड़ा विराना हो चला है
तुम्हारे बिन इंतजार का ये आलम
थोडा फीका लगने लगा है
मुझे, अपना दागदार दामन
यूँ तो चुप्पियाँ भी आकार
अब मुझको सदाएँ नहीं देती
भूले-भटके हुए फिकरों की भी
आहटें सुनाई नहीं देती
मैंने भी,
रस्म-अदायगी की खातिर
देने को बासी से उल्हाने संजोये रखे हैं
तोहफे में कुछ बेमतलब शिकवे शिकायत
बेखुदी में पनपे कुछ ख्यालात
आँखों में पुडियाए रखे है
वैसे तो तुमसे कहने को
मेरे कुछ बेपर्दा हालात भी है
साथ में, जबावों के पते खोजते
कुछ गुमशुदा सवालात भी हैं
तुम मिलना जरूर , चाहे
हमेशा की तरह कुछ भी न कहना,
अपनी उनीदी उन्मादी आँखों से
बस हर बात पे सवाल उठाते जाना
मेरे वजूद को होने का आसरा मिल जायेगा
और हाँ!! जाते जाते तुम
मेरी यें सर्द सिसकती आहें,
बची खुची सहमी कुचली सी सांसे
सब अपने आँचल में गठिया कर लेती जाना
मुझको जिन्दा रहने का बहाना मिल जायेगा!!
कभी तो मिलो तुम मेरे ख्यालातों के मोड़ पर !!