सीले सिरहाने पर रख छोड़ा हैं ,
एक तेरा स्वप्न अधूरा गीला सा
तुम हो जिसमे मैं हूँ और
वो वर्षों का एकाकीपन हैं
तेरी लाज के आँचल पर,
अब तक ठिठका मेरा मन हैं।
सिमटे सकुचे तुम बैठे थे जैसे ,
उस पहली अपनी मुलाकात में ।
अब भी वैसे ही मिलते हो मुझको,
हर भीगी सीली श्यामल रात में ।
अपनी मृग-चंचल आँखों में
एक मदहोश शरारत से -
निःशब्द ही कह जाते हो ,
चिर-पुरातन अपनी प्रेम-प्रतिज्ञा ,
जिसके बंधन में ही ,
मेरी मुक्ति का सार छिपा हैं।
जिसकी परिधि में ही
मेरा सारा संसार बसा हैं।
अपनी आहो से छूता हूँ ,
हर दिन तेरी कोमल श्वासों को ।
अपनी तृष्णा की तृप्ति को
पीता हूँ तेरी प्यास के प्यालों को ।
स्वप्न रहे थे तुम,
स्वपनों में ही पाता हूँ ।
अपनी निःशब्द प्रेम प्रतिज्ञा को
ऐसे ही हर शाम निभाता हूँ।
जिसके बंधन में ही ,
ReplyDeleteमेरी मुक्ति का सार छिपा हैं।
जिसकी परिधि में ही
मेरा सारा संसार बसा हैं।
... प्रसंशनीय रचना है।
प्रेम कि अभिव्यक्ति को बहुत सुन्दर तरीके से किया है आपने
ReplyDeleteमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
स्वप्न रहे थे तुम,
ReplyDeleteस्वपनों में ही पाता हूँ ।
अपनी निःशब्द प्रेम प्रतिज्ञा को
ऐसे ही हर शाम निभाता हूँ।
prem abhivykati ka sundar rup bahut acchi lagi aapki kavita