प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Monday, March 30, 2009

क्या थे वो तेरे हर्फ़ अनकहे


कितने भीगे मौसम की चुप्पी लपेटे,
वो बेकरार सवाल अब भी रूठा बैठा हैं
क्या इश्क तुझे भी था मुझसे या
वो मेरी आँखों का ही एक धोखा था

जिस पल मैंने तुझको थामा था
तुने क्या कहने से खुदको रोका था
उदू का डर था या रुसवाई का या -
एक इशारा था आने वाली तनहाई का

मेरे सीने पर सर रखकर छूटी
तेरी आधी अधूरी सी सिसकी
क्या बतलाती थी मुझको उस पल,
तू अब न मुझसे मिलने आएगी
चंद शबों में तू भी गैरों सी हो जायेगी

तू तो चली गयी कह कर
वो उलझे उलझे हर्फ़ अनकहे
पर उस रात को मैं अब भी
हर पल जीया करता हूँ,
ख़ुद से ही पूंछा करता हूँ
क्या थे वो तेरे हर्फ़ अनकहे

2 comments:

  1. पर उस रात को मैं अब भी
    हर पल जीया करता हूँ.....

    बहुत ही बेहतरीन मनोभाव उतारे हैं यहाँ आपने

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  2. बहुत सुंदर अभिव्‍यक्ति हुई है आपकी भावनाओं की...

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