प्यारे पथिक

जीवन ने वक्त के साहिल पर कुछ निशान छोडे हैं, यह एक प्रयास हैं उन्हें संजोने का। मुमकिन हैं लम्हे दो लम्हे में सब कुछ धूमिल हो जाए...सागर रुपी काल की लहरे हर हस्ती को मिटा दे। उम्मीद हैं कि तब भी नज़र आयेंगे ये संजोये हुए - जीवन के पदचिन्ह

Tuesday, November 24, 2009

हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!




हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

 जब एक कट-चाय समोसे से,
हम यह दुनिया नापा करते थे,
एक ख्याली धागे के दम पर,
हम  हर सिस्टम बांधा करते थे
यूँ तो हर बात फलसफे पर होती थी
एक हम ही ज्ञानी-विज्ञानी थे  बस्ती  के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के  !!

हर जटिल विषय की कक्षाएँ
केवल  जीकेडी पर लगती थी
सत्तर प्रतिशत अटेनडेंस पाने को
सिर्फ प्रॉक्सी की कौडी चलती थी
यूँ तो (असाइनमेंट) टोपिंग में हम शातिर थे  पर
कुछ कर जाते थे श्रमदान जूनियर्स जबरजस्ती से
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

वैसे तो एक ख्वायिश की उलझन में
अक्सर कितनी राते जागा करते थे,
पर हर रात परीक्षा से पहले हम,
हर दिन पढने की कसमे खाया करते थे
यूँ तो एक साल में पढना मुश्किल था पर
कई पोथी घिस जाते थे एक रात में चुस्ती से
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

एक अदद पिक्चर की खातिर हम,
हॉस्टल में सबसे चिल्लर  माँगा करते थे
मुफलिसी के दौर  रहे तो सब मिलकर
कपूरथला गंजिंग की गलियां नापा करते थे
यूँ तो एक मैगी  से  दस-दस खाया  करते थे
उधार चुकाने को दिखला देते थे दांत बत्तीसी  के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

हर अखबारी कतरन पर जमकर ,
हम सबके रिश्ते छाना करते थे,
सबकी प्रेम-कहानी पर हँसते हम पर
'उससे' मिलकर बगले झाँका करते थे
यूँ तो हर बात खनक से होती थी
पर क्या समझाते उसको कारण चुप्पी के
हाय क्या थे वो दिन फ़ाका-मस्ती के !!

* ~ * ~ * ~ * ~ * ~ * ~ *
यह कविता अचानक फेसबुक पर एक लंगोटिया यार के मिल जाने पर मन से निकली आह से उत्पन्न हुई है. उससे बात करते करते कॉलेज के पुराने दिन याद आ गए. जब परीक्षा से एक रात पहले पाता चलता था कि एक पूरी कि पूरी किताब कोर्स में हैं जिसका हमे पाता ही नहीं था ...हर जटिल विषय की क्लास से हम ऐसे गायब रहते थे जैसे कि गधे के सर से सींग... सत्तर प्रतिशत उपस्थिति दर्ज हुई नहीं कि उस क्लास से हमारा डब्बा गोल, उसके बाद तो हम केवल ढाबों पर चाय की चुस्की का आनंद लेते मिलते थे. सांख्यिकी से ज्यादा मेंहनत पिया-मिलन वाले जोडों की गणना में करते थे. उस समय हम समाज और संसार के हर विषय पर बहस करने का माद्दा रखते थे और संसार की समस्त समस्याओं का समाधान तो हम बैठे बैठे चुटकियों में निकाल लेते थे. बस ढाबे की एक सांझी चाय और समोसे का भोग लगता रहे (चाहे उधारी पर ही क्यों न ) तो सामायिक विषयों से लेकर लोकल प्रेम प्रसंगों पर हमारी ज्ञान ग्रंथि खुली रहती थी. क्योंकि यह रचना दिल की अभिव्यक्ति है इसलिए मैंने कई परचित देशज (और विदेशज) शब्दों को भी नहीं बदला है. कुछ अप्रचिलित शब्दों की परिभाषा निम्न  है.

  •  जीकेडी: गुप्ता का ढाबा. लखनऊ आई.ई. टी (इन्जिनेरिंग कॉलेज) के साथ में चलने वाला ढाबा. हमारे छात्र-जीवन में सारे के सारे ढाबों का विलायतीकरण उनके नामों के संक्षिप्त करके ही किया गया था जैसे मिश्रा का ढाबा यमकेडी, गुप्ता का ढाबा जीकेडी. इस ढाबों ने जितने सपनों को बनते बिगड़ते देखा हैं शायद ही आस-पास को कोई ईलाका उसकी बराबरी कर पाए - चाहे वो नौकरी या छोकरी के सपने हो या पनपती छात्र-राजनीति की महत्वाकांक्षाएं.


  • टोपिंग: प्रोजेक्ट या असाइनमेंट की नक़ल (टोपने अथवा टीपने) की कला; जो अक्सर एक घिस्सू छात्र के समाधान निकालने के बाद अक्सर स्वयं या जूनियर्स द्वारा कक्षा के अन्य  उन्मुक्क्त विचारों वाले छात्रों के लिए प्रतिलिपि बनाने की कला के लिए प्रयुक्त होता है.

  • गंजिंग = लखनऊ के प्रगतिशील हजरतगंज के इलाके में जीवन के फलसफे और रंगीनियों को तलाशते हुए हम जैसे फक्कडों का घूमना

Tuesday, November 17, 2009

सम्पाति-प्रलाप



यह रचना गत माह (टोलेडो) चिडियाघर में एक एकाकी गिद्ध को देखकर उत्पन्न हुई. मन में विचार उठा कि जटायु की मृत्यु का समाचार सुनकर सम्पाति के ह्रदय को क्या अनुभूति हुई होगी और परिणाम स्वरूप इन पंक्तियों   ने  जन्म  लिया

आज बैठा हूँ मैं सम्पाति विवश निराश,
निरीह निहारता नितांत, निरांत-नभ  को
सोचता उन  क्षण को जब नापा था मैंने,
बस निश्चय से  कई परिधियों में इस जग को
तब भी कभी जब यह विस्तृत व्योम  मुझे,
अपने कद से थोडा ऊँचा  लगने लगता था
अविरल उठता-गिरता उद्दंड दिवाकर अपने मद में,
 मेरे शौर्य-पराक्रम  पर खुलकर हँसने लगता  था
तब मुझको उड़ने को नित्य प्रोत्साहित करते थे,
वे अबाध्य  अजेय ओजस्वी अरमान तुम्हारे
पुनः  आओ न इस बिसरे बिखरे जीवनपथ पर ,
फिर से तराशो ये झुलसे खंडित आहात पंख हमारे


शत-योजन दृष्टि का वर-आशीष भी अभिशप्त है
यदि अनय के आगे नतमस्तक गौरव गरुण-रक्त है
प्रत्यक्ष श्वांस में भरकर विष को भी क्या पाया मैंने
सहस्र सर्प-दंश सा जीवन, सब यश व्यर्थ गंवाया मैंने
किसी कन्या के करुण-क्रंदन पर उद्वेलित न ह्रदयांगार हुआ
सुन वेदना के स्वर न धमनियों में ऊष्मा का संचार हुआ
तुझसा सामर्थ्य नहीं था मुझमे कि दस-मुख को ललकार लडूं
ऋषि चंद्रमा* का ऋण ये जीवन पर कैसे इसको धिक्कार धरूँ
मेरे बंधु-क्षय का मूल्य अब दम्भी दशग्रीव दशानन भी चुकायेगा
खग-शापित हो बैरी और बंधु-घात से ही जीवन-च्युत हो जायेगा
जीवन में कुछ क्षण और  जीने की प्यास जागते थे वो
निश्छल निष्कपट निर्मल मृदुल अहसास तुम्हारे
पुनः आओ न इस बिसरे बिखरे जीवनपथ पर ,
फिर से तराशो ये झुलसे खंडित आहात पंख हमारे


* चन्द्रमा नामक ऋषि ने ही सूर्य दहन के पश्चात् सम्पाति को नव जीवन दान दिया था
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही|  लागी दया देखि करि मोही || 
(किष्किन्धाकांड; रामचरित मानस)

Tuesday, November 10, 2009

सुना है उनकी तस्वीर ईनाम पाने को है



रोते बच्चे जो, मोहताज़ दाने-दाने को है
सुना है उनकी तस्वीर ईनाम पाने को है

फिर मुस्कुराती है, हर इक बात पर वो,
आँखों में उसकी सावन छाने को है.

सहमने लगा हैं यह शहर शाम ही से,
लगता है कोई त्योहार आने को है

बदलने लगे हैं, बात बात-ही-बात में वो,
दिल-ए-नादाँ तू धोखा खाने को है

तुझसे ही हैं, बावस्ता सारे गम मेरे यूँ तो
ज़माने की खुशियाँ वर्ना लुटाने को है

मिलने लगे हैं हंसकर सब दोस्त मुझसे,
खंजर कोई दिल आजमाने को है

मौत की राह है, देखता 'दास्ताँ' तू क्यूं
बहाने कम क्या जान जाने को हैं

Tuesday, November 3, 2009

काश! हम भी एक मौसमी दरख्त हो पाते




मौसम की करवट पर, 
हवाओं की छम-छम पाजेब पर,
आशिक़ मिजाज पेडों को
जब रंग बदलते देखता हूँ
तो सोचता हूँ क्या यही प्यार है,
इश्क का इज़हार है

एक मौसम का साथ,
चंद दोपहरियों का ताप
जिनमे साथ कुछ धुप सही, कुछ छाया
हवाओं से फिर न जाने क्या रिश्ता बनाया
कि उनकी सर्द होते स्पर्श के स्पंदन से
पाकर एक अनुभूति अपने अंतर्मन में
कुछ यूँ पसर जाते हैं,
अपने पतझड़ के दर्द को भुलाकर भी,
यार के लिए रंगीन नज़र आते हैं ....
मौत के आगन में, दर्द  के दामन में 
दीदार-ए-यार से गुल सा खिल जाते है

(और एक हम हैं कि )
एक मौसम नहीं सौ ऋतुयें देखी हैं,
एक छत जो  ईंट-ईंट जोड़ी है
उसके नीचे एक रिश्ता भी न रच पाते है
तेरे मेरे शब्दों में  खुद अपनों से कट जाते हैं
अपने अपने गम का पत्थर लेकर
मुकम्मल रिश्तों को भी चुनवाते हैं 
अपनी गुरूर की मैली चादर
झूठी खुशियों  की  खातिर इतना फैलाते हैं
सिर्फ गम के ज़ार-ज़ार पैबंद नज़र आते है

काश! हम भी एक मौसमी दरख्त हो पाते
सांसों की शाख छोड़ने से पहले
एक बार ही सही ,
यार के लिए यूँ ही मुस्कुराते,
जाते जाते उसका दामन रंगों से भर जाते !!
काश! हम भी एक मौसमी दरख्त हो पाते !!
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