क्यों मन में एक शून्य हैं पनपा,
क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?
न पाषाण हूँ, न मैं कोई बुद्ध,
न पक्ष में, न मैं किसीके विरूद्व।
क्यों फ़िर हृदय-संवेदना च्युत,
सिर्फ़ शून्य! प्रवाह सभी अवरुद्ध।।
न मुझे कामना की प्यास ,
न मुझे निर्वाण की कोई आस।
विदेह ह्रदय हर भावना से मुक्त,
क्यों फ़िर ह्रदय न गीत साधना से युक्त?
नहीं पसीजता लेस भर हृदय
किसी भी करुण क्रौंच-क्रंदन पर,
नहीं दहकता सूत भर ह्रदय
आज स्वयं के भी मान-मर्दन पर
दिग्भ्रमित पथिक अथक ढूंढता हो
मंजिले ज्यूँ मध्य के पड़ाव पर
शब्द वसन लपेटे खडा हूँ, नग्न बाज़ार में,
क्यों फिर न टपकता काव्य-अश्रु अभाव पर?
बौधिक हो रही है काव्य-रचना,
दर्द नहीं इसमे संसार का,
रंगा-पुता हैं हर शब्द पर,
अंश नहीं हैं इसमें प्यार का,
सजे हुए हर्फ बेतरकीब कई ,
कोई सलीका नहीं इनमे इज़हार का
साज-सज्जित और अलंकृत हैं छंद
क्यों फिर भाव नहीं हैं कतिपय अहसास का ?
क्यों मन में एक शून्य हैं पनपा,
क्या विराम दूँ अभिव्यक्ति को?